BJP-ruled Haryana and central government's staunch on farmers

क्या बीजेपी भूल गई कि यह किसानों और मजदूरों का देश है? उन्हें दबाने और कुचलने की नीति इस पार्टी को और इसकी सरकारों को बहुत महंगी पड़ सकती है.

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क्या बीजेपी भूल गई कि यह किसानों और मजदूरों का देश है? उन्हें दबाने और कुचलने की नीति इस पार्टी को और इसकी सरकारों को बहुत महंगी पड़ सकती है. उद्योगों व निवेश को बढ़ावा देने के नाम पर लगभग 3 वर्ष के लहए श्रमिक कानून स्थगित कर केंद्र सरकार ने देश के श्रमजीवी वर्ग को नाराज किया है. उनकी छटनी, वेतन वृद्धि रोकने या बोनस में मनमानी कटौती को लेकर कहीं कोई सुनवाई नहीं है. इसी तरह 3 नए कृषि कानून बनाकर किसानों को बड़ी कंपनियों या कारपोरेट के रहयोकरम पर छोड़ दिया गया है. सरकारएमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर कोई भी गारंटी देने को तैयार नहीं है. किसानों की आय दोगुनी करने की बात कहकर यह कानून लागू किए गए लेकिन किसान वर्ग को ह कानून छलावा प्रतीत होते हैं. यदि केंद्र सरकार के इरादे साफ हैं तो वह किसान संगठनों के प्रतिनिधियों से चर्चा क्यों नहीं करती? वह बगले क्यों झांक रही है? जब दिल्ल्ी में किसान नेताओं को सरकार से चर्चा के लिए बुलाया गया तो कोई मंत्री सामने नहीं आया बल्कि अधिकारियों को भेज दिया गया. ऐसे में किसान नेताओं ने चर्चा का बहिष्कार किया. लोकतंत्र का तकाजा है कि आंदोलनकारियों के प्रतिनिधियों से चर्चा कर विवाद का हल खोजा जाए परंतु सरकार हठीला रवैया अपना रही है. क्या 500 किसान संगठनों को पूरी तरह गलत कहा जा सकता है?

आंदोलनकारियों का दमन

सैकड़ों आंदोलनकारी किसानों के ‘दिल्ली चलो’ कार्यक्रम को रोकने के लिए दिल्ली, हरियाणा और यूपी की सरकारों ने कमर कस ली है. सड़कों पर क्रेन के जरिए बड़े-बड़े बोलडर डालकर व बैरियर लगाकर सड़कें ब्लॉक कर दी गई हैं. किसानों पर अंबाला और हरियाणा के प्रदेश मार्गों पर पुलिस ने जमकर बलप्रयोग किया और ठंडे पानी की धार छोड़ी. दिल्ली व हरियाणा की सरी सीमाएं सील कर दी गई व किलेबंदी की गई है. किसानों का जज्बा यह है कि वे ट्रैक्टरों पर खाने-पीने का सामान, बिस्तर वगैरह लेकर चल पड़े हैं. हरियाणा व यूपी में बड़े पैमाने पर आंदोलनकारी किसानों की गिरफ्तारी की जा रही है.

कारपोरेट व ठेके की खेती का विरोध

किसानों का आंदोलन इसलिए है क्योंकि सरकार कारपोरेट और ठेके की खेती चाहती है. इससे सीमांत या छोटा किसान खेती से हटने पर मजबूर हो जाएगा. देश की 60 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है. उनके सामने अन्य कोई विकल्प नहीं है. केंद्र सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की बात कह रही है लेकिन अपनी ओर से इससे कौन सा सहयोग दे रही है? सरकार में बैठे विशेषज्ञ व अर्थशास्त्री उस दिन का सपना देख रहे हैं जब रोजी-रोटी को मोहताज किसान बड़ी फूड चेन के साथ अनुबंध करेगा और अपनी फसल उसे बेचेगा. अभी किसान अपने गांव के स्तर पर या पास के शहर में अपनी उपज बेचता है. जो किसान समुदाय पहले ही साहूकारों के कर्ज से दबा है, वह सरकारी मदद के बिना कैसे अपनी छोटी सी उपज सीधे बेच पाएगा? सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि किसा देश भर में कहीं भी पनी उपज बेचने के लिए स्वतंत्र है लेकिन क्या यह इतना आसान है? पंजाब और हरियाणा में सरकार सिर्फ गेहूं और धान खरीदती है. महाराष्ट्र में सरकार कभी-कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कपास खरीदती है जिसका भुगतान भी काफी विलंब से किया जाता है. कपास हल्के दर्जे का बता कर ग्रेडरदाम भी कम लगाते हैं.

एमएसपी की गारंटी दी जाए

यदि सरकार किसानों की भलाई के लिए कुछ करना चाहती है तो स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक फसल की संपूर्ण लागत के साथ 50 प्रतिशत अधिक के रूप में न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करे. अभी पुराने तरीके से एमएसपी तय किया जा रहा है. सरकार जो सब्सिडी देती है वह किसानों कोनहीं बल्कि उर्वरक निर्माता कंपनियों को मिलती है. क्यों नहीं यह सब्सिडी सीधे किसान के बैंक खाते में जमा कराई जाए. सरकार कृषि उपज समितियों का एकाधिकार तोड रही हैं तो कोई सार्थक विकल्प लाए. किसान आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं इसीलिए उन्होंने पंजाब में लंबा आदोलन किया और ट्रेन चलने नहीं दी. टकराव की बजाय समझौते का कोई रास्ता शीघ्र निकाला जाना चाहिए.