China-Nepal need not be deterred by its antics

विस्तारवादी चीन और उसके इशारे पर चलने वाला नेपाल का कम्युनिस्ट नेतृत्व जिस प्रकार की कारगुजारी में लिप्त है, उसे देखते हुए भारत को अत्यंत सतर्क रहने की आवश्यकता है।

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विस्तारवादी चीन और उसके इशारे पर चलने वाला नेपाल का कम्युनिस्ट नेतृत्व जिस प्रकार की कारगुजारी में लिप्त है, उसे देखते हुए भारत को अत्यंत सतर्क रहने की आवश्यकता है। जरा सी भी गफलत महंगी पड़ सकती है। आपसी संबंधी नरम-गरम चलते रहेंगे। ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि किसी भी देश के पास यह विकल्प नहीं होता कि अपना पड़ोसी बदल ले। उसकी खोटी नीयत के बावजूद सजगता बरतते हुए उसके साथ निभाव तो करना ही पड़ता है। चीन की महत्वाकांक्षी अंतहीन है। वह सिर्फ एशिया में अपने प्रभाव से संतुष्ट नहीं है बल्कि अमेरिका से टक्कर लेकर विश्व शक्ति बनना चाहता है इसलिए वह अपना शक्ति प्रदर्शन करने और जानबूझकर तनाव पैदा करने में लगा है।

भारत को सभी ओर से घेरने की साजिश
चीन ने भारत के सभी पड़ोसी देशों को अपने दबाव-प्रभाव क्षेत्रों में ले रखा है। पाकिस्तान, श्रीलंका, नेपाल बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव तक उसने अपना जाल फैलाया। किसी को कर्ज दिया तो किसी के बंदरगाह को कब्जे में लिया। श्रीलंका के हम्बन टोटा तथा पाक के बलूचिस्तान में भी चीन बंदरगाह बनाने में लगा है। इंजीनियरों और श्रमिकों के वेश में चीन ने न जान कितने फौजी वहां उतार दिए हैं। मालदीव जैसा छोटा सा देश भी चीन के इशारे पर भारत को आंखें दिखाने लगा था लेकिन बाद में सही रास्ते पर आ गया। चीन हिंद महासागर में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराना चाहता है। वह अपनी निर्धारित समुद्री सीमा में आगे बढ़कर दक्षिण चीन सागर में नौसैनिक हलचलें बढ़ा रहा है जिससे जापान, फिलीपीन्स, कंबोडिया जैसे देश भी नाराज हैं।

अब नहीं चलेगा छल छद्म
चीन की कूटनीति विचित्र है। वह कभी धौंस देता है तो कभी चालाकी दिखाते हुए मीठी-मीठी बातें करने लगता है। इस फरेब से हमें बचना होगा। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर हजारों सैनिकों की तैनाती का तनावपूर्ण स्थिति बनाने के बाद जब चीन ने देखा कि भारत उससे दब नहीं रहा है तो उसके राजपूत सन विडेंगा ने अचानक बदली हुई भाषा में कहा कि हम एक दूसरे के लिए खतरा नहीं हैं। हमें कभी भी अपने मतभेदों को अपने रिश्तों पर हावी नहीं होने देना चाहिए। दोनों देश एक दूसरे के लिए अवसरों के द्वार हैं न कि खतरों के! ड्रैगन और हाथी एक साथ नृत्य कर सकते हैं। भारत को कम ही चीन की ऐसी फुसलाने वाली बातों के बहकावे में नहीं आना चाहिए। 1962 का दुखद अनुभव भारत कभी नहीं भूल सकता। चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाय भारत की यात्रा पर आए थे तो पीएम नेहरू ने उनका भव्य स्वागत किया था। दोनों देशों के बीच भगवान बुद्ध के बताए 5 सिद्धांतों के आधार पर शांति, सह अस्तित्व व सहयोग का पंचशील समझौते हुआ था। लेकिन चाऊ एक लाय की वापसी के बाद चीन ने भयानक विश्वासघात करते हुए उत्तरी सीमा पर हमला कर दिया। तब नेफा (नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी) पर चीनी सेना टूट पड़ी। उस समय भरत पर्वतीय युद्ध के लिए तैयार नहीं था। न तो भारतीय सेना के पास ऊंचे दर्जे के अस्त्र, शस्त्र थे न बर्फ में पहनने लायक गर्म पोशाक व जूते। इस युद्ध में चीन ने भारत की 22,000 वर्ग मील जमीन पर कब्जा कर लिया था। चीन भारत को दिखाना चाहता था कि एशिया में वह बिग ब्रदर की हैसियत रखता है। इस कद्र अनुभव के बाद भारत ने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाई जो 1965 व 1971 में पाकिस्तान से युद्ध में काम आई। आज भारत की तीनों सेनाएं काफी मजबूत है। पीएम मोदी का नेतृत्व भी सुदृढ़ है। वे चीन नस-नस से वाकिफ हैं।

संबंधों में सुधार की पहल
चीन से रिश्ते सुधारने के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ओर बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन यात्रा की थी। प्रधानमंत्री मोदी ने भी चीनी राष्ट्रपति यूरी जिन पिंग का भारत यात्रा पर शानदार स्वागत किया था और बाद में भी बिक्स जैसे अंतरराष्ट्रीय फोरम में भी ऊंची भेंट होती रही। भारत में चीन का व्यापारिक संबंध भी निरंतर बढ़ता गया। भारत बड़ी तादाद में चीनी माल का आयात कर्ता है। केंद्रीय राज्यमंत्री जनरल वी के सिंह ने कहा है कि चीन मूल मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए एलएसी पर तनाव उत्पन्न करने का प्रयास करता है। इसके बारे में हमें ज्यादा चिंता नहीं करनी चाहिए। भारतीय सेना सोच-समझकर इसका हल ढूंढती है।

ट्रम्प की बिन मांगी पेशकश
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प को न जाने क्या सूझता है कि व्यर्थ ही बीच में टपकने की कोशिश करते हैं। पहले उन्होंने कश्मीर को लेकर भारत-पाक के बीच मध्यस्थता की पेशकश की थी। और अब भारत चीन सीमा विवाद में विचौलिए की भूमिका निभाने की पेशकश कर रहे हैं। उचित होगा कि वे अपने यहां कोरोना की चुनौती से निपटने को प्राथमिकता दे जिससे 1 लाख से ज्यादा अमेरिकियों की मौत हो चुकी है। यह भी शक है कि ट्रम्प को इन विवादों तथा यहां की भौगोलिक स्थिति की जानकारी होनी थी या नहीं। यह कोई ऐसे विवाद नहीं है जिनका चुटकी बजाते हल निकल आए।