For the first time, the central government bowed before the farmers, Modi's astonishing silence

यह पहली बार है जब किसान आंदोलनकारियों को टस से मस न होता देखकर सरकार घुटने टेकने को मजबूर हुई है.

Loading

अपनी अड़ियल प्रवृत्ति के लिए विख्यात केंद्र सरकार को लगभग 2 माह से आंदोलन कर रहे किसानों के सामने झुकना ही पड़ा. यह पहली बार है जब किसान आंदोलनकारियों को टस से मस न होता देखकर सरकार घुटने टेकने को मजबूर हुई है. इतने समय तक केंद्रीय मंत्रियों की एक ही रट थी कि कृषि कानून वापस नहीं लिए जाएंगे और किसान नेताओं के साथ उनकी हर बैठक बेनतीजा रही. कितने आश्चर्य की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस ज्वलंत मुद्दे पर पूरी तरह मौन रखा.

उन्होंने कृषि मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर व वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल को आंदोलनकारी नेताओं से चर्चा के दौर-पर-दौर करने की जिम्मेदारी सौंप रखी थी लेकिन खुद खामोश रहे. कोई प्रेस कांफ्रेंस तो पीएम लेते नहीं और उनका संवाद भी ‘मन की बात’ के रूप में एकपक्षीय रहता है. न किसी की कोई बात सुनना है और न जवाब देना है. विपक्षी नेताओं के आलोचनात्मक बयानों व आरोपों पर भी मोदी ने ध्यान नहीं दिया. उन्होंने किसानों को नए कृषि कानूनों के लिए राजी करने की जिम्मेदारी अपने मंत्रियों पर सौंप रखी थी जो ऐसा कर पाने में पूरी तरह विफल रहे.

सारा जोर आजमा कर देख लिया

आंदोलनकारी किसानों पर लाठी चार्ज, पानी की तेज धार छोड़ने से भी उनका मनोबल कमजोर नहीं हुआ. वे दिल्ली की सीमा पर भीषण ठंड में आंदोलन करते रहे. इस आंदोलन में 150 से ज्यादा किसान शहीद भी हो गए लेकिन अन्यायपूर्ण कृषि कानूनों को वापस लेने की उनकी मांग अभी भी यथावत बनी हुई है. अनेकों खिलाड़ियों, शिक्षाविदों, पूर्व नौकरशाहों व गणमान्य व्यक्तियों ने किसानों का समर्थन करते हुए अपने पदकों व सम्मान अलंकरणों को वापस करने की तैयारी दर्शाई.

आंदोलनकारियों को नक्सलवादी, खालिस्तानी, विदेशी पैसे से पलने वाले कहकर बदनाम करने की कोशिश हुई. सरकार ने कोशिश की कि न्यायपालिका के जरिए किसानों पर दबाव लाया जाए लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कृषि कानूनों के अमल पर फिलहाल रोक लगा दी और एक कमेटी बना दी. सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सामने जाने से किसानों ने साफ इनकार कर दिया.

एक सदस्य ने तो खुद को समिति से अलग भी कर लिया. सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था कि यह समिति सिर्फ उसे सुझाव देने के लिए है, उसके पास फैसला करने का कोई अधिकार नहीं है. समिति का मामला टांय-टांय फिस्स होता देख मंत्रियों ने कृषि कानूनों की एक-एक धारा (क्लाज) पर किसान नेताओं से चर्चा का प्रस्ताव रखा लेकिन साथ ही यह भी कहा कि संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की वापसी नहीं होगी.

किसान कानून निलंबित रखने का प्रस्ताव

जब 10 दौर की बातचीत के बावजूद किसानों को मनाने के सारे हथकंडे विफल रहे तो सरकार ने पहली बार नरमी का रुख अपनाते हुए कृषि कानूनों को डेढ़ से 2 वर्षों तक के लिए निलंबित करने का प्रस्ताव दिया. अब सवाल यह है कि क्या किसान इसके लिए राजी होंगे? मोदी सरकार का कार्यकाल 2024 तक है. यदि डेढ़ वर्ष ठहरकर उसने इन कानूनों को लागू कर दिया तो किसान क्या कर पाएंगे? फिर नए सिरे से आंदोलन करना पड़ेगा और तब क्या आंदोलन में इतनी ताकत रह पाएगी? किसानों की मांग कानूनों का अमल टालने की नहीं, बल्कि पूरी तरह रद्द करने की है.

कांग्रेस और विपक्ष ने सरकार पर क्रोनी कैपिटलिज्म या कुछ पूंजीपति मित्रों के साथ साठगांठ का आरोप लगाया और कहा कि वह किसानों को कारपोरेट हितों की बलि चढ़ा रही है. मोदी सरकार ने 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का वादा किया था लेकिन किसे पता था कि वह किसानों की किस्मत व कृषि ढांचे को उन औद्योगिक घरानों को सौंप देगी जो खुद का मुनाफा कमाने में विश्वास रखते हैं. विपक्ष की दलील है कि अभी खेती पर किसी का एकाधिकार नहीं है. इससे किसान, मजदूर, व्यापारी, उपभोक्ता सभी के हित जुड़े हैं.