राकां ने तुरंत रिप्लेस किया, शिवसेना नहीं दे पाई नया चेहरा 2 महीने में विदर्भ के 2 मंत्री गए

    Loading

    महाराष्ट्र की राजनीति में बीता एक महीना महाविकास आघाड़ी सरकार के लिए ग्रहण लेकर आया. इस ग्रहण का सबसे ज्यादा भौगोलिक असर राज्य के विदर्भ क्षेत्र पर पड़ा. पहले शिवसेना कोटे के वनमंत्री संजय राठौड़ (Sanjay Rathore)को पूजा चव्हाण आत्महत्या प्रकरण में इस्तीफा देना पड़ा और अब परमबीर सिंह (Param Bir Singh) के आरोपों पर हाईकोर्ट द्वारा सीबीआई जांच के आदेश के बाद अनिल देशमुख (Anil Deshmukh) को भी गृहमंत्री पद छोड़ना पड़ा. अनिल के जाते ही राकां ने उनकी जगह दिलीप वलसे पाटिल (Dilip Walse Patil ) को गृह मंत्रालय सौंप दिया, जबकि वन मंत्री राठौड़ की जगह अब तक शिवसेना (Shiv Sena) उनका रिप्लेसमेंट नहीं खोज सकी है.   

    विदर्भ के साथ होता रहा अन्याय

    वास्तव में महाराष्ट्र में शामिल होने के बाद से विदर्भ के साथ अन्याय ही होता आया है. विदर्भ के नेताओं ने हमेशा महाराष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व दिया, लेकिन गैर-विदर्भ के नेताओं ने हमेशा छल-कपट ही किया है. कांग्रेस और भाजपा को छोड़ दिया जाए तो शिवसेना और राकां ने कभी भी विदर्भ के अपने नेताओं को अच्छे और मलाईदार पद देने में आनाकानी ही की है. 2014 के बाद पहली बार जब बीजेपी ने नागपुर के युवा नेता देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया था, तब जाकर विदर्भ की प्रतिष्ठा में चार चांद लगे थे. 2019 में आघाड़ी सरकार के गठन के समय शरद पवार के सामने जब गृह मंत्रालय देने का धर्मसंकट था, तब उन्होंने अनिल देशमुख पर भरोसा जताया था. उसी तरह शिवसेना ने भी विदर्भ के वनक्षेत्र और मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे व उनके पुत्र आदित्य ठाकरे के जंगल-प्रेम को देखते हुए यवतमाल के संजय राठौड़ को वन मंत्री बना दिया था. यह दोनों मंत्री पद मिलने से विदर्भ का मान भी राजनीति में बढ़ा और राज्य में भौगोलिक संतुलन भी हो गया. मात्र अब, जब दोनों मंत्रियों को हटाया गया तो विदर्भ की झोली खाली हो गई. राकां ने पश्चिम महाराष्ट्र के कद्दावर नेता और कभी सीनियर पवार के पीए रहे दिलीप वलसे पाटिल को गृह मंत्री बना दिया. अब एक महत्वपूर्ण मंत्रालय तो विदर्भ से छिन गया, शिवसेना भी विदर्भ से यदि किसी दूसरे अपने नेता को वन मंत्रालय न दे तो दूसरा प्रमुख मंत्रालय भी हाथ से चला जाएगा.

    मंत्रिमंडल विस्तार : आघाड़ी का सिरदर्द

    मंत्रिमंडल विस्तार की जब भी बात उठती है, आघाड़ी सरकार की स्थिरता का सवाल ज्यादा बड़ा हो जाता है. तीन पार्टियों वाली सरकार में एकसूत्रता के साथ विस्तार करना जटिल मुद्दा है. यहां तीन आलाकमान हैं और एक सुपर हाईकमान. सभी को संतुष्ट करके पार्टी में विस्तार के बाद होने वाले झटकों के बीच संतुलन बनाए रखना भी एक बड़ी कवायद है. उसी तरह बीजेपी जिस तरह राज्य में हर घटनाक्रम को आपरेशन लोटस से जोड़ती है, उससे निपटना भी एक अलग ही सिरदर्द है. जब तक आघाड़ी का विस्तार नहीं होगा, बहुत सारी संभावनाएं नहीं बन पाएंगी. यही कारण है कि जैसा चल रहा है, उसी तरह चलता रहे, ऐसा तीनों दलों के नेता और वर्तमान मंत्रीगण भी चाहते हैं. 

    राकां करती है अपनों की रक्षा

    तीनों दलों में राष्ट्रवादी कांग्रेस अकेली ऐसी पार्टी है जो हर परेशानी में अपने लोगों की रक्षा आखिरी दम तक करती है. यही इस पार्टी की खासियत भी है. धनंजय मुंडे इसका एक ज्वलंत उदाहरण हैं. मुंडे को आखिरी समय तक पहले जूनियर पवार बचाते रहे और जब मामला निपट गया तो सीनियर पवार ने भी आशीर्वाद दे दिया. अनिल के मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ. वो तो हाईकोर्ट ने सीबीआई जांच की अनुशंसा कर दी, अन्यथा अनिल भी अपने पद पर बने रहते. कांग्रेस और शिवसेना में अलग हालात हैं. कांग्रेस में एक दूसरे की टांग खींचने में ही हर दूसरा नेता-मंत्री लगा रहता है, जबकि शिवसेना में मातोश्री से पंगा लेने का विचार रखने वाला भी ज्यादा दिनों तक अपने पद पर नहीं टिक पाता. राठौड़ से यही एक गलती हुई है. अब देखना होगा कि दो महत्वपूर्ण मंत्रालयों से हाथ धोने के बाद जो नये सिरे से बैकलाग बना है, वह कब तक दूर होगा. विदर्भ और बैकलाग का संबंध अब दशकों पुराना हो गया है. अन्याय सहना विदर्भ और विदर्भवासियों की आदत हो गई है.