Similar situation on Republic Day, from Lok Sabha-Vidhan Sabha to Ordinances

यही हमारे गणतंत्र का वर्तमान चित्र है!

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हमारे संविधान निर्माताओं ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि भारतीय गणतंत्र में ‘गण’ उपेक्षित रहेगा और ‘तंत्र’ हावी हो जाएगा. सरकार मनमाने ढंग से अध्यादेश जारी करेगी तथा संसद में प्रस्तावों पर चर्चा या बहस कराए बगैर ही आपाधापी में बिल पास कराए जाएंगे. न तो सदन में विचार-विमर्श, न चयन समिति के पास भेजे जाने की प्रक्रिया और न ही जनमत जानने की ईमानदारीपूर्ण कोशिश. सरकार के पास बहुमत है तो पलक झपकते अपनी मर्जी से कोई भी कानून पारित करा सकती है. यही हमारे गणतंत्र का वर्तमान चित्र है! सरकार की अकड़ के सामने जनभावनाओं की कोई कद्र नहीं है. एक बार प्रचंड जनादेश मिल जाए तो सरकार व सत्ताधारी पार्टी के लिए विपक्ष उपेक्षा व उपहास का पात्र तक बन जाता है. संवाद और वैचारिक आदान-प्रदान की जरूरत ही महसूस नहीं की जाती, सब कुछ एकपक्षीय बनकर रह जाता है.

जवाबदेही का अभाव

गणराज्य की संकल्पना इस बुनियाद पर टिकी है कि राज्य अपनी सहमति से मिलकर गणतंत्र बनाते हैं. हमारा अनेकता में एकता वाला देश है जिसमें वैचारिक भिन्नता के बावजूद एक दूसरे के विचारों का आदर अपेक्षित है. मतभेद कहां नहीं होते! परिवार के सदस्यों के बीच भी होते हैं परंतु कहीं न कहीं लचीला रुख अपनाकर समाधान तो खोजा ही जाता है. जहां एकांगी सोच है और अपनी मर्जी से सभी को हांकने की प्रवृत्ति है, वहां तानाशाही के बीज अंकुरित होने लगते हैं. उत्तरदायित्व या जवाबदेही का अभाव ऐसी स्थिति ला देता है जिसमें शासन तंत्र के सामने जनता का स्वर नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जाता है. जब जनता की मांगों और शिकायतों की सुनवाई नहीं होती तब जन असंतोष का लावा उबलने लगता है. यदि सरकार लोकाभिमुख हो तो ऐसी नौबत ही नहीं आती लेकिन जहां सत्ता का केंद्रीकरण हो जाए और जनसामान्य को गाजर-मूली समझ लिया जाए, वहां गणतंत्र को कैसे मजबूती मिल पाएगी?

जनादेश एकाधिकार नहीं देता

हमारे संसदीय लोकतंत्र की बुनियाद 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान ने रख दी थी. 1952 में हुए प्रथम आम चुनाव के बाद गठित संसद एवं राज्य विधान मंडलों में सरकार और विपक्ष के बीच नियंत्रण और संतुलन को पूरा महत्व दिया गया था. सरकार अपने बहुमत के बावजूद विपक्षी नेताओं के आलोचनात्मक भाषण सुनती थी. प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू अपनी अपार लोकप्रियता के बावजूद संसद में डा. राममनोहर लोहिया, प्रो. एनजी रंगा, आचार्य कृपलानी, एचवी कामत, भूपेश गुप्त आदि नेताओं के तीखे प्रहार झेलते थे. फिरोज गांधी ने हरिदास मूंदड़ा प्रकरण में नेहरू सरकार की इतनी तीखी आलोचना की थी कि टीटी कृष्णमाचारी को वित्त मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था. इसी तरह 1962 के चीन के हमले के बाद जब सरकार की तीखी आलोचना हुई तो वीके कृष्णमेनन को रक्षा मंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था. वह समय था जब विपक्ष की सुनी जाती थी तथा संसदीय कार्यवाही का विधिवत पालन होता था. सरकार का गणतंत्र के प्रति दायित्व बोध था. उसे पता था कि चुनाव में मिलने वाला जनादेश सत्ता का एकाधिकार या मनमानी का लाइसेंस नहीं देता.

पिछले रास्ते से हुकूमत क्यों

अध्यादेश तब जारी किया जाता है जब संसद या विधानमंडल का सत्र नहीं चल रहा हो लेकिन सत्र शुरू होते ही अध्यादेश पर संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती थी. विधेयक पर बहस के बाद बिल मतविभाजन के लिए रखा जाता था. अब तो बगैर किसी चर्चा के जल्दबाजी में ध्वनिमत से विधेयक पारित करा लिए जाते हैं. कृषि कानून ऐसी ही आपाधापी में पारित कराए गए जिनका आंदोलन के जरिए तीव्र विरोध हो रहा है. ऐसे ही 4 श्रम संहिता विधेयकों के खिलाफ ट्रेड यूनियनों ने मैदान में उतरने की तैयारी कर ली है. किसान हों या मजदूर, निश्चित तौर पर गणतंत्र के महत्वपूर्ण घटक हैं. क्या सरकार को उनके प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए?