The right time to ban biological weapons

द्वितीय विश्वयुद्ध एवं शीतयुद्ध के समय तरह-तरह के जैविक युद्ध जैसे चेचक, एंथ्रेक्स इत्यादि की खबरें आती रहती थीं, जिसका प्रभाव केवल कुछ सीमित देशों तक ही होता था। ये बीमारियां विषाणु से फैलती हैं।

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द्वितीय विश्वयुद्ध एवं शीतयुद्ध के समय तरह-तरह के जैविक युद्ध जैसे चेचक, एंथ्रेक्स इत्यादि की खबरें आती रहती थीं, जिसका प्रभाव केवल कुछ सीमित देशों तक ही होता था। ये बीमारियां विषाणु से फैलती हैं। चीन के वुहान से दुनिया भर में महामारी फैलाने वाले कोरोना वायरस के बारे में अभी यह पुष्टि नहीं हुई है कि इसे प्रयोगशाला में ही तैयार किया गया है।

मगर कोरोना वायरस के आगे विश्व के विकसित और महाशक्ति कहे जाने वाले अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन और इंग्लैड के साथ ही सारे देश खुद को असहाय पा रहे हैं। ऐसे में दुनिया यह सोचने को मजबूर हुई है कि यदि सचमुच जैविक युद्ध छिड़ गया, तो कैसी तबाही मच सकती है। यही सही समय है, जब जैविक हथियारों से संबंधित प्रोटोकॉल और संधियों की पड़ताल की जाए। 

बनाने पर नियंत्रण नहीं
जैविक और रासायनिक युद्ध के बारे में 1925 में एक प्रोटोकॉल जिनेवा में पारित किया गया था, जिसे शुरू में विश्व के 25 देशों का समर्थन प्राप्त था। उस प्रोटोकॉल में प्रावधान था कि कोई देश दूसरे देश के विरुद्ध जैविक हथियारों का प्रयोग नहीं करेगा और उस प्रस्ताव में जैविक युद्ध में प्रयोग किए जाने वाले पदार्थों के भंडारण तथा उनके बनाने को रोकने का कोई प्रावधान नहीं था। इन्हीं कमियों के कारण दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर ने कई जगहों पर रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल कर अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद स्थापित संयुक्त राष्ट्र ने अपनी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए एक संस्थागत ढांचा तैयार किया, जिसमें इसका संविधान तथा बहुत-सी संस्थाएं हैं, जिनके द्वारा मानवता के कल्याण, आतंकवाद को खत्म करने और दो देशों के बीच में होने वाले विवादों को सुलझाने के प्रावधान हैं।

यूएन के पास कार्रवाई का अधिकार
यदि कोई देश उसके प्रावधानों को नहीं मानता है, तो उसके विरुद्ध उचित कार्रवाई करने के उपाय भी संयुक्त राष्ट्र के पास हैं। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में अपना  प्रभाव स्थापित करने के लिए विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, संयुक्त राष्ट्र शिक्षा एवं आर्थिक परिषद, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय इत्यादि स्थापित किए गए। परंतु अभी तक जैविक तथा रासायनिक युद्ध रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र में कोई प्रावधान नहीं है।

1925 के जैविक एवं रासायनिक युद्ध के लिए बने प्रोटोकॉल की निष्क्रियता तथा प्रभावहीनता को देखते हुए इंग्लैंड में 10 अप्रैल, 1972 में विचार-विमर्श शुरू हुआ कि किस प्रकार इस युद्ध से दुनिया को बचाने के लिए प्रावधान किए जाने चाहिए। इसमें तय किया गया कि विश्व का कोई देश ऐसे पदार्थ तथा बैक्टीरिया अपने यहां न तो बनाएगा और न ही इनका भंडारण करेगा।

1975 में अस्तित्व में आई इस संधि को जैविक एवं विषाक्त हथियार संधि के नाम से जाना जाता है, जिससे 2019 तक 185 देश जुड़ चुके थे। मगर इस संधि में भी इस प्रकार के युद्ध को अपनाने वाले देश के विरुद्ध कोई ऐसा ठोस प्रावधान नहीं है, जिससे कोई देश इस प्रकार का युद्ध थोपने की हिम्मत न कर सके। दोषी पाए जाने की स्थिति में संबंधित देश के विरुद्ध कोई प्रतिबंध या सजा का प्रावधान भी नहीं है।

अब समय आ गया है, जब भारत को उसी प्रकार कदम उठाना चाहिए, जिस प्रकार विश्व में शीतयुद्ध के समय पूरी दुनिया के देश के दो हिस्सों में बंट जाने के बाद उसने गुटनिरपेक्ष देशों के समूह का गठन कर किया था। वुहान से फैले कोरोना वायरस की असली वजहें अभी पता नहीं। लेकिन इसकी वजह से दुनिया में जिस तरह से महामारी फैली, उससे सहज ही कल्पना की जा सकती है कि यदि सचमुच जैविक युद्ध छिड़ गए, तो क्या स्थिति होगी।

इससे बचने का एक मौका दुनिया के पास है और वह यह कि 1975 की जैविक एवं विषाक्त हथियार संधि में कड़े प्रावधान करे। इसकी हर पांच साल बाद समीक्षा होती है और अगला मौका जनवरी, 2021 में आने वाला है। इस समय इस समझौते का अध्यक्ष श्रीलंका है और समझौते के प्रावधानों के अनुसार इस समय इसके सदस्य देश इसके लिए एजेंडा तैयार कर रहे हैं।

इसको देखते हुए भारत तथा अन्य देशों को इस प्रकार के प्रावधान इसमें प्रस्तुत करने चाहिए, जिनके द्वारा इस प्रकार के पदार्थों को बनाने का शक होने पर संबंधित देश के अंदर जांच की जा सके तथा दोषी पाए जाने पर उस देश का आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार किया जाए।