आज की खास खबर

Published: May 04, 2023 03:27 PM IST

आज की खास खबरसंसद के मानसून सत्र में राजद्रोह कानून रहेगा या जाएगा?

कंटेन्ट राइटरनवभारत.कॉम
कंटेन्ट एडिटरनवभारत.कॉम

गत वर्ष 9 मई को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि वह राजद्रोह कानून की समीक्षा के लिए तैयार है और इस कार्य के पूर्ण होने तक बिना क्षेत्र के एसपी की पूर्व अनुमति के किसी पर राजद्रोह कानून के तहत एफआईआर दर्ज नहीं की जाएगी. भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा की खंडपीठ ने पुनर्समीक्षा की अनुमति तो दी, लेकिन केंद्र की उक्त पेशकश को ठुकराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती के साथ सभी प्राधिकारियों को आदेश दिया है कि समीक्षा पूरी होने तक वह आईपीसी की धारा 124ए के तहत कोई नया केस दर्ज नहीं करेंगे. अदालत ने यह भी कहा था कि जिन व्यक्तियों को इन प्रावधानों के तहत गिरफ्तार किया हुआ है, उन्हें जमानत देने की प्रक्रिया में तेजी लाई जाए. राजद्रोह प्रावधान को स्थगित किए हुए अब लगभग एक वर्ष बीत गया है और केंद्र ने 1 मई 2023 को सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया है कि सभी स्टेकहोल्डर्स से अपराधिक कानूनों में सुधार से संबंधित विचार-विमर्श वास्तव में काफी आगे बढ़ गया है. इस विचार-विमर्श में धारा 124ए का यह विवादित मुद्दा भी है कि उसे बरकरार रखा जाए, हल्का किया जाए या निरस्त किया जाए. इसलिए सरकार ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ व न्यायाधीश जेबी पारदीवाला की खंडपीठ से आग्रह किया कि इस मुद्दे पर सुनवाई संसद के जुलाई में मानसून सत्र के बाद रखी जाए. खंडपीठ ने इस आग्रह को मानते हुए अगली सुनवाई अगस्त के दूसरे सप्ताह के लिए निर्धारित की है. 6 दशक पहले सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यों की खंडपीठ ने ‘केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य’ में राजद्रोह कानून को लागू करने की प्रक्रिया को तो हल्का कर दिया था, लेकिन उसकी संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था. सुप्रीम कोर्ट ने 1962 के केदारनाथ सिंह केस में कहा था कि जब तक हिंसा करने का आह्वान या पब्लिक ऑर्डर बाधित करने का इरादा न हो, सरकार की कैसी भी आलोचना को राजद्रोह नहीं ठहराया जा सकता.

सवाल यह है कि सरकार ने इस संदर्भ में अगस्त तक का समय क्यों मांगा? दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं. एक, संसद के मानसून सत्र के दौरान सरकार राजद्रोह सहित आपराधिक कानूनों में सुधार करने हेतु अपनी मर्जी का विधेयक लाना चाहती है. दूसरा यह कि सरकार नहीं चाहती कि सेम-सेक्स मैरिज मुद्दे की तरह राजद्रोह मामले को भी सुप्रीम कोर्ट पूर्णतः अपने अधिकार क्षेत्र में ले ले.

दूसरी ओर जिन याचिकाकर्ताओं ने राजद्रोह की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है, वह चाहते हैं कि धारा 124ए को पूर्णतः निरस्त किया जाए, क्योंकि केदारनाथ सिंह केस में इसे हल्का किए जाने के बावजूद भी इसका दुरुपयोग जारी रहा, जब तक कि मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे समीक्षा पूर्ण होने तक स्थगित नहीं कर दिया था. धारा 124ए के स्थगन से पहले तक बहुत ही मामूली घटनाओं में लोगों पर राजद्रोह कानून थोपा गया था. ब्रिटिशकाल के इस काले कानून को लागू करने के लिए भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैचों, कार्टूनों, सोशल मीडिया पोस्ट्स और हद तो यह है कि हनुमान चालीसा को भी आधार बनाया गया. इस प्रकार के अनगिनत किस्से हैं, जिनमें एक्टिविस्ट्स, पत्रकारों, राजनीतिज्ञों, छात्रों व आम नागरिकों को धारा 124ए के तहत गिरफ्तार किया गया था, जो कि सुप्रीम कोर्ट के 1962 के दिशा-निर्देशों का खुला उल्लंघन था.

आमतौर पर एक आरोपी को ट्रायल कोर्ट से जमानत मिलने तक कम से कम 50 दिन जेल में रहना पड़ता है और हाईकोर्ट से जमानत मिलने में 200 दिन भी लग जाते हैं. आईपीसी की धारा 124ए के मुताबिक ‘शब्दों, चिन्हों या अन्य तरीकों से सरकार के विरुद्ध नफरत, निंदा या असंतोष उत्पन्न करना राजद्रोह है.’ यह काला कानून ब्रिटिश हुकूमत ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए बनाया था. 2009 में ब्रिटेन ने राजनीतिक असहमति व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मजबूत करने के लिए राजद्रोह कानून को निरस्त कर दिया. लेकिन भारत में यह अभी तक आईपीसी का हिस्सा बना हुआ है, जबकि इसे 1947 में देश की आजादी के साथ ही समाप्त कर देना चाहिए था. 

– नरेंद्र शर्मा