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Published: Oct 14, 2020 02:42 PM IST

नवभारत विशेष धर्म परिवर्तन दिवस : डॉ. आंबेडकर ने 'बौद्ध धम्म' ही क्यों चुना?

कंटेन्ट राइटरनवभारत.कॉम

भारत रत्न बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर (Dr. Babasaheb ambedkar) ने विजयदशमी के दिन नागपुर में  सन् 1956 में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बोधिसत्व (Buddhism) धम्म की दीक्षा ली थी। इतने साल गुजर जाने के बावजूद आज भी नई पीढ़ी के युवाओं के जेहन में यह सवाल जिन्दा है कि, आखिर बाबासाहेब ने धर्म परिवर्तन (Dharm parivartan divas) क्यों किया और धम्म कारवां क्यों आरंभ किया?

दरअसल डॉ. आंबेडकर जब कोलम्बिया विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई पूरी कर रहे है थे, तब उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला था कि, भारत में जातिगत असमानता के कारण ही दलित पीछे हैं। 9 मई, 1916 को कोलम्बिया विश्वविद्यालय में आयोजित एक सेमिनार में अपने रिसर्च पेपर ‘भारत में जातियां-उनकी संरचना, उद्भव एवं विकास’ के जरिए डॉ. आंबेडकर ने यह साबित कर दिया था कि कुछ स्वार्थी लोगों ने जातिगत असमानता की व्यवस्था को शास्त्र सम्मत दिखाने की कोशिश की है और ये धारणा फैलाई है कि शास्त्र गलत नहीं हो सकते। भारत लौटने के बाद उन्होंने दलितों के मानवाधिकारों के लिए अलग-अलग मोर्चे पर प्रयास करना शुरू कर दिया। महाड सत्याग्रह द्वारा सार्वजनिक तालाबों से पानी पीने के अधिकार, कालाराम मंदिर में दलितों के प्रवेश का अधिकार, अंग्रेजी सरकार के सामने दलितों के लिए वयस्क मताधिकार का अधिकार, गोलमेज सम्मेलन में पृथक निर्वाचन के अधिकार की लड़ाई ऐसी ही कोशिश थी।

डॉ. आंबेडकर का प्रयास रंग लाया और 1932 में ब्रिटिश सरकार ने दलितों के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की घोषणा कर दी, परंतु महात्मा गांधी द्वारा आमरण-अनशन पर बैठ गए। उनके समर्थक डॉ़. आंबेडकर को तरह-तरह की धमकियां देने लगे। तब डॉ.  आंबेडकर को मजबूर होकर पूना पैक्ट स्वीकार करना पड़ा और दलितों के लिए आरक्षण के बदले में पृथक निर्वाचन का हक छोड़ना पड़ा।  इस संघर्ष के दौरान डॉ.  आंबेडकर इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि हिन्दू धर्म में रहकर दलितों को राजनैतिक आजादी का अधिकार भले ही मिल जाए लेकिन उनको आर्थिक और सामाजिक बराबरी का हक नहीं मिल सकता। इसलिए 1935 में येवला (नाशिक) में डॉ. आंबेडकर ने घोषणा की थी कि वह हिन्दू धर्म में पैदा हुए थे यह उनके वश की बात नहीं थी लेकिन हिन्दू रहकर वह मरेंगे नहीं, यह उनके वश में है। डॉ. आंबेडकर ने धर्म-परिवर्तन का निश्चय येवला की सभा में ही कर लिया था। 

धर्म परिवर्तन सभा में डॉ.आंबेडकर ने कहा:-‘मुझे उस प्रश्न पर बस आश्चर्य ही होता है जिसे कुछ हिन्दू कुछ इस तरह उठाते हैं कि केवल धर्म-परिवर्तन से क्या होने वाला है? भारत में वर्तमान समय के सिक्खों, मुसलमानों और ईसाईयों में से अधिसंख्य लोग तो पहले हिन्दू ही थे और उन में भी शूद्रों और दलितों की तादाद ही सबसे ज्यादा है…अगर ऐसा है भी तो धर्म-परिवर्तन के बाद उनकी स्थिति में एक स्पष्ट प्रगति साफ दिखती है… समस्या पर गहन चिंतन-मनन करने के बाद हर किसी को यह मानना पड़ेगा कि दलितों के लिये धर्म-परिवर्तन उसी प्रकार जरूरी है जिस प्रकार भारत के लिए स्वराज जरूरी है। दोनों का अंतिम लक्ष्य तो एक जैसा ही है, दोनों के लक्ष्य में कोई फर्क नहीं है और वह अंतिम लक्ष्य है स्वतंत्रता प्राप्त करना।

आंबेडर को पसंद आया बुद्ध का मानवीय रूप 

सबसे पहले वे इन चारों धर्मों के संस्थापकों, पैगंबरों और अवतारों की तुलना करते हैं। वे लिखते हैं कि ‘ईसाई धर्म के संस्थापक ईसा मसीह खुद को ईश्वर का बेटा घोषित करते हैं और अनुयायियों से कहते हैं कि जो लोग ईश्वर के दरबार में प्रवेश करना चाहते हैं उन्हें उनको ईश्वर का बेटा स्वीकार करना होगा। इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद खुद को खुदा का पैगम्बर (संदेशवाहक) घोषित करते हुए घोषणा करते हैं कि मुक्ति चाहने वालों को न केवल उन्हें खुदा का पैगम्बर मानना होगा, बल्कि यह भी स्वीकार करना होगा कि वह अन्तिम पैगम्बर हैं।’ इसके बाद डॉ। आंबेडकर हिंदू धर्म की बात करते हैं। हिंदू धर्म के बारे में वे कहते हैं कि ‘इसके अवतारी पुरुष ने तो ईसा मसीह और मुहम्मद से भी आगे बढ़कर खुद को ईश्वर का अवतार यानी परमपिता परमेश्वर घोषित किया है।’

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