संपादकीय

Published: Jun 17, 2021 12:11 PM IST

संपादकीयसहयोगियों से विचार-विमर्श अब मोदी को सुनना ही होगा

कंटेन्ट राइटरनवभारत.कॉम
कंटेन्ट एडिटरनवभारत.कॉम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कार्यशैली कभी भी सामूहिक तौर पर चर्चा कर निर्णय लेने की नहीं रही. जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब भी मंत्रिमंडलीय सहयोगियों से चर्चा की बजाय सीधे संबंधित नौकरशाहों को बुलाकर अपना निर्णय सुना देते थे और उन्हें काम पूरा करने की जिम्मेदारी सौंप दिया करते थे. प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके कामकाज का यही तरीका रहा. वे नीतियों और निर्णयों को अपने स्तर पर तय करते रहे हैं. पीएम के रूप में प्रथम कार्यकाल में उनके संकेतों पर सरकार ही नहीं, बल्कि पार्टी भी चल रही थी. अब मोदी की कार्यशैली में बदलाव महसूस किया जा रहा है.

वे इन दिनों अपने सहयोगी मंत्रियों से लगातार मिल रहे हैं और पिछले एक सप्ताह में ऐसी 4 से 5 बैठकें कर चुके हैं. मोदी ने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से सलाह-मशविरा किया. इससे यह आभास होने लगा कि मोदी किसी न किसी दबाव में हैं क्योंकि ये दोनों ही नेता बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके हैं. आरएसएस में इन नेताओं की गहरी पैठ है. ऐसा माना जा रहा है कि बंगाल के चुनाव में बीजेपी की विफलता तथा यूपी, मध्यप्रदेश, कर्नाटक में पार्टी के भीतर पनपती गुटबाजी से लेकर ब्रांड मोदी की वैल्यू पर भी असर पड़ा है. इसके अलावा कोरोना की दूसरी लहर में बड़ी तादाद में लोगों की मौत से भी नेतृत्व की छवि प्रभावित हुई कि वह महामारी से निपटने को लेकर गंभीर नहीं था.

समझा जा रहा है कि बीजेपी को उसके पितृ संगठन आरएसएस ने सलाह दी है कि संकट के दौर में जनता के आक्रोश के साथ सहयोगियों का असंतोष बढ़ाना ठीक नहीं है. इसलिए सरकार, संगठन और कार्यकर्ताओं के बीच संवाद की पुरानी पद्धति को अपनाया जाए. प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट मंत्रियों से संवाद करें, उनकी राय सुनें और चाहे तो उस पर अमल करें. ऐसा करने से सरकार के भीतर के असंतोष और जनता के आक्रोश को कम किया जा सकता है. ऐसा होने पर मंत्री भी तहेदिल से जनता के बीच जाकर सरकार का पक्ष रखेंगे.