चंद्रपुर

Published: Jan 30, 2023 10:41 PM IST

Shankarpat सिंदेवाही में उडने लगा शंकरपट का धुआं

कंटेन्ट राइटरनवभारत.कॉम

सिंदेवाही. चंद्रपुर जिले की सिंदेवाही तहसील को झाडीपट्टी क्षेत्र के नाम से जाना जाता है. सिंदेवाही तहसील को शंकरपट व उसपर निर्भर नाटक से यह तहसील सांस्कृतिक की पंढरी के नाम से जाना जाता है. पिछले कुछ वर्ष से शंकरपट पर बंदी आने से परिसर के किसानों के उत्साह पर पानी फेर गया था. परंतु आठ साल की लंबे संघर्ष के पश्चात किसानों में उत्साह का माहौल बनाते हुए बैलगाड़ी दौड़ को सशर्त अनुमति दे दी गई. संक्रांती के बाद ग्रामीण क्षेत्र में शंकरपट व नाटक की शुरूवात होती है. 

संक्रांती से गांव में शुरू होनेवाले शंकरपट के अवसर पर गांव_गांव के रिश्तेदारों का आगमन होता है. रिश्तेदारों से मिलना जुलना होता है. दूरदराज से आनेवाले रिश्तेदारों की खातिरदारी करने में गांव का एक भी परिवार पीछे नही रहता. घर में धन न हो तो भी व्यवस्था की जाती है. आनेवाले मेहमान को दिन में शंकरपट, मंडई व रात में नाटक दिखाकर मेहमानवाजी की जाती है. इसलिए इस क्षेत्र में शंकरपट, मंडई, नाटक रचना की जाती है. इस दौरान एक गांव में अनेक नाटकों का मंचन किया जाता है. 

सिंदेवाही तहसील के मिनघरी गांव में संक्रांत से शंकरपट को शुरूवात की जाती है. उसके बाद नवरगांव, देलनवाड़ी, वासेरा, शिवानी, रत्नापुर, कुकडहेटी, रामाला, वानेरी, सिंदेवाही, आंबोली टेकरी, पेठगांव, पड़सगांव, लाडबोरी आदि गांव में नाटक और पट के दावतों की गारंटी होती ही है. कई गांवों के लोग खास कर शंकरपट के अवसर पर आते हैं. शंकरपट देखने के उपलक्ष्य में कई परिवारों में विवाह भी जुड जाते है. शंकरपट पुन: शुरू होने से ग्रामीण क्षेत्रों में उत्साह का माहौल बन गया है. और शंकरपट पर आश्रित छोटे व्यवसायियों के लिए अच्छे दिन आए है. यांत्रिक युग में बैलों को दूर किया जा रहा था वही अब शंकरपट के चलते बैलों को अच्छी किंमत आ रही है. किसान व पशुमालिकों में उत्साह का माहोल है. 

कई लोगों के मन में वास्तव में शंकरपट की प्रथा व परम्परा कैसे शुरू हुवी इसपर जानने की जिज्ञासा है. 14वीं सदी के आसपास इशान्य स्पेन में बैलों के सामने दौडने की परम्पर शुरू हुवी. ‘पैम्प्लोना के एंसीरो’ नाम के कई लोग उग्र सांडों के सामने अपनी जान बचाने के लिए दौड़ने के लिए उत्साहित थे. 

18वीं शताब्दी में भारत में आचार

18वीं और 19वीं शताब्दी में एशिया में, स्पेन से कई मील दूर, शुरुआत में हमारे भारत देश में, ग्रामीण क्षेत्रों में परिवहन के लिए बैलगाड़ियों का उपयोग किया जाता था. बैलों का उपयोग, जो प्रजनन तक सीमित था, बाद में माल, कृषि उत्पादन और मानव परिवहन के लिए उपयोग किया जाने लगा. बैलों की आक्रामक प्रकृति का उपयोग करने के इरादे से पहले बैलगाडी अस्तित्व में आई थी. एक बैल का मालिक होना और उसकी देखभाल करना गर्व की बात मानी जाती थी. जो लोग इसे वहन कर सकते थे, उन्होंने बैलगाड़ी की दौड़ के लिए बैलों को प्रशिक्षित करना शुरू कर दिया. 

अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम

महाराष्ट्र में इस खेल को शंकरपट के नाम से जाना जाता है. इस दौड़ को कर्नाटक में कंबल, तमिलनाडु में रेकला, और पंजाब में बौलदा दी दौड़ के नाम से जाना जाता है. इसके अलावा मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में बैलगाड़ी दौड़ भी खेली जाती है. 

प्रतिष्ठा का विषय 

ग्रामीण क्षेत्रों में बैलों के मालिकों के लिए यह बड़ी प्रतिष्ठा का विषय माना जाता है. इसलिए बैलों को बैलगाड़ी दौड़ में भाग लेने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. बैलगाड़ी दौड़ के लिए वर्ष भर बैलों का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता था जो दर्शकों के लिए एक दावत थी.