आचार्य रामचंद्र शुक्ल विश्व के तीन सबसे बड़ आलोचकों में से एक हैं

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आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी और भारतीय भाषाओं के ही सर्वश्रेष्ठ आलोचक नहीं हैं अपितु वे विश्व के तीन श्रेष्ठतम आलोचकों में से एक हैं। मेरा मानना है कि अरस्तू, मैथ्यू आर्नल्ड और आचार्य रामचंद्र शुक्ल विश्व के तीन सबसे बड़े आलोचक हैं जिन्होंने काव्यालोचन के क्षेत्र में युगांतरकारी प्रस्थान उपस्थित किया है। एक ऐसा प्रस्थान प्रवर्तक व्यक्तित्व जो अतीत से लेकर वर्तमान तक को नूतन बना दे और भविष्य के लिए विवेकपूर्ण संकेत कर जाए वही आचार्य कहलाने का अधिकारी है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ऐसे ही आचार्य हैं। वे अपनी प्रखर मेधा   निरपेक्ष तथा जनतांत्रिक विश्वदृष्टि द्वारा हिंदी आलोचना को ठोस आधार और आकर्षक व्यक्तित्व प्रदान करते हैं।आप ऐसे वृहद स्तरीय ( Macro) तथा गहन स्तरीय ( Micro)  आलोचक हैं जो अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानता है।  आपने ‘ग्रहण’ और ‘त्याग’ के विवेक का परिचय देते हुए पश्चिम से वांछनीय तत्वों का वरण किया ।

इन्होंने अपने स्वाधीन व्यक्तित्व तथा लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करते हुए पाश्चात्य सिद्धांतों तथा विचारकों से आक्रांत न होने का साहस दिखलाया। आप भारतवर्ष की जीवंत व गतिशील लोकोन्मुख परंपरा को लोक से सम्बद्ध करके उसे पुरस्कृत करते हैं। राजनीतिशास्त्र में जो महत्व लोकतंत्र का है , लगभग उसी वजन तथा महत्व का शब्द लोकधर्म को हिंदी आलोचना के चरम प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित किया।

आचार्य शुक्ल की लोकचिंता, अंतर्दृष्टि और विश्वसंदृष्टि उन्हें विराट और व्यापक दृष्टिकोण से समन्वित आलोचक के तौर पर हमारे सामने लाती है।फलतः शुक्लजी के प्रिय कवि भले ही महाकवि गोस्वामी तुलसीदास रहे हों परंतु उन्होंने अपनी व्यावहारिक आलोचना का सर्वोत्तम जायसी को दिया है।

इसी तरह उन्होंने हिंदी साहित्य के सभी कालखंडों, रचनाकारोंतथा साहित्य की प्रायः सभी विधाओं पर साधिकार लिखा है वह उनकी व्यावहारिक आलोचना को बहुआयामी एवं आश्चर्यजनक अर्थव्याप्ति प्रदान करता है। इनके द्वारा रचित ‘ रस-मीमांसा’ हिंदी की सैद्धांतिक आलोचना का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है।

शुक्लजी ने जिस सूझ-बूझ ,मेधा, तार्किकता और विवेचन-क्षमता द्वारा क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की मर्यादाएं बतायीं,उसके दुर्बल और अनुपयोगी पक्षों को उद्घाटित किया और पाश्चात्य सिद्धांतों तथा विचारधाराओं की गहन जानकारी होने के बावजूद हिंदी आलोचना को उसके दुष्प्रभावों से बचाया वह उनकी आलोचना को विश्वस्तरीय विमर्श प्रदान कलता है।

साथ ही, उन्होंने जिस तैयारी, साहस तथा विश्लेषण क्षमता द्वारा सामंतवाद का विरोध किया, जिन शब्दों में दरबारी संस्कृति का मुखौटा उतारा, जिस नैतिक एवं सामाजिक सरोकार से रहस्यवाद एवं गुह्य-साधना का विरोध किया तथा जिस विनोदवृत्ति द्वारा पूंजीवाद का मुखौटा उतारा वह उनके आलोचक को बहुत बड़ा बनाता है –” यह कथन है मुंबई विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष तथा प्रख्यात आलोचक  डॉ  .करुणाशंकर उपाध्याय का, जो आचार्य रामचंद्र शुक्ल की 136 वीं जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित एक दिवसीय राष्ट्रीय वेब गोष्ठी में मुख्यवक्ता के रूप में अपना विचार व्यक्त कर रहे थे। 

ध्यातव्य है कि उक्त वेब गोष्ठी आचार्य रामचंद्र शुक्ल शोध संस्थान द्वारा आयोजित की गयी थी। कार्यक्रम के आरंभ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रपौत्री डॉ.मुक्ता ने अतिथियों का स्वागत करते हुए उनका परिचय दिया । साथ ही, आचार्य शुक्ल के आलोचना कर्म पर संक्षिप्त किन्तु अर्थपूर्ण टिप्पणी की। अगले वक्ता के रूप में जवाहर लाल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.ओमप्रकाश सिंह ने चिंतामणि भाग -चार के महत्व का रेखांकन किया।

बी.एच.यू.के हिंदी विभाग के प्रोफेसर डॉ.श्रीप्रकाश शुक्ल ने आचार्य शुक्ल को पहला बड़ा अंतःअनुशासनिक आलोचक बतलाया और अपने सारगर्भित वक्तव्य में उनके महत्व का भी रेखांकन किया । मुख्यअतिथि के रूप में सागर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ.आनंदप्रकाश त्रिपाठी ने शुक्लजी को बड़ा आलोचक होने के साथ-साथ उन्हें महान शिक्षा शास्त्री भी बतलाया। साथ ही , किसानों, मजदूरों तथा साधारण जनता के लिए उनके द्वारा किए गए कार्यों का उल्लेख भी किया। डॉ.सदानंद शाही और डॉ.देवेन्द्र यादव ने इस मौके पर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत की।

अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में डॉ.जितेन्द्रनाथ मिश्र ने कहा कि आचार्य शुक्ल जैसे महान आलोचक के बारे में इतने कम समय में कुछ कह पाना गागर में सागर भरने जैसा है। कार्यक्रम का सुंदर संचालन आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रपौत्र डॉ.मंजीत चतुर्वेदी ने किया। इस कार्यक्रम में अच्छी संख्या में देश भर के विद्वान आभासीय माध्यम से जुड़े थे।

– डॉ.करुणाशंकर उपाध्याय