नज़ीर अकबराबादी के कृष्ण !

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अठारहवीं सदी के अज़ीम शायर नज़ीर अकबराबादी उर्फ़ वली मुहम्मद आम लोगों के शायर थे। अपने देश की साझी संस्कृति के सबसे बड़े झंडाबरदारों में एक नज़ीर साहब को उर्दू नज़्म का पिता भी माना जाता है। कृष्ण पर लिखे उनके दर्जनों नज़्म हमारी अदबी धरोहर का अनमोल हिस्सा हैं। आज कृष्ण जन्माष्टी के मौके पर नज़ीर साहब को याद करते हुए कृष्ण को समर्पित उनकी एक नज़्म आप भी देखिए !

है सबका ख़ुदा सब तुझ पे फ़िदा
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी
हे कृष्ण कन्हैया, नन्द लला
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

इसरारे हक़ीक़त यों खोले 
तौहीद के वह मोती रोले 
सब कहने लगे ऐ सल्ले अला 
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

सरसब्ज़ हुए वीरान-ए-दिल 
इस में हुआ जब तू दाखिल 
गुलज़ार खिला सहरा-सहरा 
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

मुट्ठी भर चावल के बदले 
दुख दर्द सुदामा के दूर किए 
पल भर में बना क़तरा दरिया 
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

जब तुझसे मिला ख़ुद को भूला 
हैरान हूँ मैं इंसा कि ख़ुदा 
मैं यह भी हुआ, मैं वह भी हुआ 
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

ख़ुर्शीद में जल्वा, चांद में भी 
हर गुल में तेरे रुख़सार की बू 
घूंघट जो खुला सखियों ने कहा 
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

दिलदार ग्वालों, बालों का 
और सारे दुनियादारों का 
सूरत में नबी सीरत में ख़ुदा 
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

इस हुस्ने अमल के सालिक ने 
इस दस्तो जबलए के मालिक ने 
कोहसार लिया उंगली पे उठा 
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

मन मोहिनी सूरत वाला था 
न गोरा था न काला था 
जिस रंग में चाहा देख लिया 
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

तालिब है तेरी रहमत का 
बन्दए नाचीज़ नज़ीर तेरा 
तू बहरे करम है नंद लला 
ऐ सल्ले अला,
अल्लाहो ग़नी, अल्लाहो ग़नी !

साभार: अब्दुल्लाह ज़करिया