Jaishankar Prasad

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महाकवि जयशंकर प्रसाद हिंदी के बहुआयामी साहित्यकार हैं। इनका जन्म 30 जनवरी 1890 को काशी के सुप्रतिष्ठ सुंघनी साहू परिवार में हुआ था और इनका अवसान क्षय रोग के कारण कम आयु में 15 नवंबर 1937 को हुआ था। इन्होंने सातवीं कक्षा तक विद्यालयीन शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत घर पर ही हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य का अध्ययन किया। आप भारतीय इतिहास, संस्कृति, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान, कला और साहित्य के निष्णात विद्वान माने जाते हैं।गोस्वामी तुलसीदास की तरह ही आप हिंदी  के बहुश्रुत कवि और श्रेष्ठतम प्रतिभा के रूप में हमारे सामने आते हैं। आपकी नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा ने न केवल हिंदी में अनेक विधाओं का सूत्रपात किया अपितु उसे विश्वस्तरीय भी बनाया। अतः इनके संपूर्ण साहित्य का पुनर्पाठ वर्तमान समय की मांग है।

प्रसादजी के रचनात्मक जीवन का आरंभ काव्य-लेखन से ही हुआ। इनके द्वारा  रचित ‘प्रेम पथिक’ पहले ब्रजभाषा के छंदगत अनुशासन में प्रकाशित हुआ किन्तु समय की मांग और जरूरत को ध्यान में रखकर प्रसाद जी  ने उसे 1913 में दुबारा खड़ी बोली में  प्रकाशित करवाया।यह खड़ीबोली हिंदी के अतुकांत रूप में है। यह एक संभावनावान कवि की किशोर भावनाओं के अनुरूप प्रेम के उदात्त, भावनात्मक और सार्वभौम-शास्वत स्वरूप का निर्वचन है। किसी के प्रेम में योगी  होकर प्रकृति के स्वच्छंद एवं अकृत्रिम परिवेश में रहने की आदिम आकांक्षा मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। इस मूल भावना को प्रेम, सौंदर्य एवं कल्पना के द्वारा व्यवस्थित रूपक प्रदान किया गया है जिससे यह हिंदी की पहली लंबी कविता भी बन गयी है। यह अपने रूपात्मक तंत्र में एक विराट कवि की संभावनाओं का निदर्शन करती है।यहां प्रसाद की विश्व संदृष्टि का स्फुरण होता है।

प्रेम पथिक में प्रसादजी किशोर और चमेली के माध्यम से प्रेम, सौंदर्य और प्रकृति के अनंत रमणीय सौंदर्य का जो रूपायन करते हैं वह हर युग के युवाओं के लिए रमणीय वस्तु है।पथिक अनंत की जिज्ञासा से प्रेरित होकर जब प्रदीर्घ यात्रा पर निकलता है तो वह प्रकृति की अनंत विभूति तथा जीवन साधना के विलक्षण रूप से परिचित होता है।कवि पथिक द्वारा तापसी के समक्ष अपनी अंतहीन यात्रा और प्रेम की व्यथा-कथा का वृत्तांत प्रस्तुत करवाता है। चूंकि वह पुतली अथवा चमेली ही थी अतः वह किशोर को पहचान जाती है। वह भी अपनी करुण-कथा कह डालती है। फलतः पथिक भी उसे पहचान लेता है और दोनों के बाल्यकाल की स्मृतियां उन्हें उदात्त भावभूमि पर पहुंचा देती हैं। वे दोनों विश्व के प्रत्येक परमाणु में अपरिमित सौंदर्य के दर्शन करते हुए विश्वात्मा ही सुन्दरतम है – की प्रतिष्ठा करते हैं। उनके प्रेम में प्रेय( आनंद) के स्थान पर श्रेय ( लोकमंगल) का पक्ष प्रबल हो जाता है। वे अपने प्रेम की मानवीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए उसे चराचर जगत अथवा विश्वप्रेम में रूपांतरित कर देते हैं। प्रेम के अत्यंत व्यापक और उदात्त रूप के चित्रण  के कारण यह कविता आज वेलेंटाइन डे मनाने वाली पीढ़ी को  भी प्रेरितऔर प्रभावित कर सकती है।

यह कविता अपने विश्वबोध, प्रकृति और कृषक जीवन के बहुस्तरीय एवं बहुरंगी चित्रों, उदात्त भावना, जीवन-संघर्ष, त्याग-तपस्या तथा मानवीय मूल्यों की अपूर्व सृष्टि के कारण हिंदी की एक अतिशय महत्वपूर्ण तथा कालजयी कृति है। इसे खंडकाव्य और लंबी कविता दोनों का गौरव प्राप्त है। लेकिन मैं इसे हिंदी की पहली लंबी कविता के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहता हूँ। यह कविता न केवल भाव-बोध, वस्तुविन्यास, मनोवैज्ञानिक अंतर्द्वंद्व के धरातल पर रीतिकालीन काव्यपरंपरा का अतिक्रमण करती है अपितु रचना-विधान, आत्मव्यंजना, भाषिक अनुप्रयोग , कल्पनात्मक छवियों तथा समुचित अलंकार योजना के कारण भी कामायनी जैसे महाकाव्य के स्रष्टा की विराट प्रतिभा का स्फुरण भी बन जाती है। प्रसादजी की इस बहुचर्चित घोषणा को संपूर्णता में विश्वसनीयता प्रदान करते हुए यह कविता स्वयं ही ऐतिहासिक महत्व की अधिकारिणी बन जाती है–

“इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना

किन्तु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं ।”

मुझे इस बात पर प्रसन्नता हो रही है कि महाकवि जयशंकर प्रसाद की यह कविता मनुष्य को साहसिक अभियान पर निकलने के लिए प्रेरित करती है। वर्तमान दौर में जब मनुष्य आपा-धापी और संघर्षपूर्ण जीवन में बौद्धिकता के अतिरेक के चलते अजनबीपन का अनुभव कर रहा है। आज जब वह भीड़ में भी स्वयं को अकेला पा रहा है तब प्रेमपथिक और भी प्रासंगिक तथा लोकोपयोगी हो जाता है। मैं इन स्वयं प्रसाद की इन पंक्तियों के साथ उनकी पुण्य स्मृति का स्मरण करता हूँ कि:- यह नीड़ मनोहर कृतियों का, यह विश्वकर्म रंगस्थल है। है परंपरा लग रही यहां ठहरा जिसमें जितना बल है।”

कहना न होगा कि महाकवि जयशंकर प्रसाद अपनी रचनाओं की शक्तिमत्ता के कारण कालजयी हैं।

डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग

मुंबई विश्वविद्यालय मुंबई – 400098.