मूक फ़िल्मों से लेकर वर्तमान दौर की अनेक फ़िल्मों में काम कर चुके पी.जयराज की कहानी

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क्या आप उस फिल्म कलाकार को जानते हैं जिसने सबसे लंबे समय (63वर्ष) तक फिल्मोद्योग में एकछत्र राज किया? जिसके खाते में ऐतिहासिक, देशभक्त चरित्रों (पृथ्वीराज चौहान,महाराणा प्रताप, अमर सिंह राठौड़, हैदर अली, टीपू सुल्तान ,चंद्रशेखर आजाद, हातिमताई दुर्गादास राठौड़ आदि)को निभाने का कीर्तिमान है? प्रसिद्ध संगीतकार नौशाद को फिल्मी दुनिया में लाने का श्रेय जिसे हो… या “जीवन मृत्यु” के एसएन राय, ” छोटी बहू” के राजाराम प्रसाद बहादुर, “शोले” में पुलिस कमिश्नर , “डॉन” का दयाल,  “मुकद्दर का सिकंदर” का डॉक्टर कपूर या “क्रांति” का महाराज लक्ष्मण सिंह याद हो तो… उस कलाकार का नाम है पैदी जयराज, जिन्हें हम पी.जयराज के नाम से जानते हैं । आंध्रीय नाम पाइदि पाठी नैरूला नायडू , जो  भारत की स्वर कोकिला सरोजिनी नायडू के भतीजे थे।

अभिनेता, निर्देशक, निर्माता कई सारे विशेषण जुड़े है। 28 सितंबर 1909 निजाम स्टेट करीमनगर( वर्तमान  तेलंगाना) हैदराबाद में जन्मे जयराज की प्रारंभिक शिक्षा रोमन कैथोलिक स्कूल , फिर निजाम हाई स्कूल (उर्दू) ,फिर वुड नेशनल कॉलेज बोर्डिंग हाउस , हैदराबाद (स्नातक)में हुई। कल यानी 11 अगस्त (2000) को उनकी पुण्यतिथि थी। दिल्ली निवासी सावित्री जी से उनका विवाह हुआ।  जिसका चुनाव पृथ्वीराज कपूर  के पिताजी ने  और पृथ्वीराज जी ने कन्यादान किया था। उनकी पांच संतान है–बड़े बेटे  दिलीप राज (अभिनेता , उनकी अभिनीत , ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म  “शहर और सपना” राष्ट्रपति से पुरस्कृत) जय तिलक(अमेरिका में बस गये हैं) व  तीन बेटियां- जयश्री(का विवाह राजकपूर की पत्नी कृष्णा के छोटे भाई भूपेंद्र नाथ के साथ), दीपा और गीता। पिता सरकारी कार्यालय में लेखाधिकारी थे।  वे 8 भाई-बहनों में सबसे छोटे थे।  बीएससी के बाद जयराज नेवी में जाना चाहते थे।  बड़े भाई सुंदर राज इंजीनियरिंग पढ़ाने के लिए लंदन भेजना चाहते थे ।मां चाहती थी कि इंग्लैंड में पढ़े। मां बड़े भाई को बहुत स्नेह देती थी । पिताजी सेवानिवृत्त हो गए। कुछ इन्हीं कारणों से खीज कर वे किस्मत आजमाने 1929 में 19 वर्ष की उम्र में मुंबई आ गए।

मुंबई में हैदराबाद का एक दोस्त जेजे हॉस्पिटल के हॉस्टल में रहकर डॉक्टरी पढ़ रहा था।  वे उसके पास आए। बड़ी मुश्किल से हॉस्टल में 30 दिन रहने की व्यवस्था हुई। उन्हें समुद्री लहरें बहुत अच्छी लगती थी, इसलिए डॉक यार्ड में नौकरी की। वहां दोस्त बने रंग्या के सहयोग से पोस्टर  रंगने का काम मिला।  उन्हीं पोस्टरों की बदौलत वे स्टूडियो तक पहुंच गये। मजबूत कद काठी,  अच्छी भाषा, सुगठित शरीर, शानदार संवाद अदायगी, तेलुगू थियेटर का अनुभव, विशेषकर तलवार चलाने की कला   ने उन्हें निर्माताओं की नजरों में ला दिया। कारण, समय हीरो  पहलवान , तंदुरुस्त होते थे ताकि  घोड़े से, रस्सी से, ट्रेन पर उछल कूद कर सके।  तब डुप्लीकेट नहीं हुआ करते थे।  हीरो खुद ही ये काम करते थे ,ना करें तो उसे हीरो नहीं माना जाता था । ये सब गुण जयराज में थे। उन्होंने 1932 में स्वदेशी आंदोलन में भाग लिया था। महावीर फोटो प्लेज में काम मिला। उस समय मूक फिल्में होने से अभिनेता के खड़े रहने की भूमिका मिली। मूक फिल्मों से शुरूआत कर, अब तक हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती की कुल 300 फिल्मों में काम किया जिनमें 160 फिल्मों में वे नायक रहे। भायखला के एक स्टूडियो में निर्देशक नागेंद्र मजूमदार के सहायक निर्देशक बने।

 

वहीं उन्होंने संपादन,  सिने छायांकन, डबिंग तमाम फिल्मों की कलाओं को सीखा। दिलीप कुमार की फिल्म “प्रतिमा” का निर्देशन जयराज ने किया।  उनकी पहली फिल्म “प्रतिभा” थी जिसकी निर्मात्री देविका रानी थी। अभिनेता के रूप में मजूमदार ने उन्हें पहली बार “जगमगाती जवानी” में अवसर दिया जिसके नायक माधव काले थे।  नायक को घुड़सवारी, फाइटिंग नहीं आती थी ।अतः: जयराज ने मास्क पहनकर  काम किया और उनके सारे स्टंट भी  किये। ये फिल्म मराठी साहित्यकार मामा वरेरकर  द्वारा निर्मित “स्मार्कलिंग युथ” पर आधारित थी।  इसमें जेबुन्निसा के साथ उनकी जोड़ी काफी सफल रही। ” यंग इंडिया” पिक्चर्स ने ₹35/- प्रतिमाह  खाना और चार लोगों के साथ गिरगांव में रहने की सुविधा दी 1930 में “रसीली रानी” फिल्म से उन्हें ₹75/- प्रति माह मिलने लगे । माधुरी इस फिल्म की नायिका थी।”नवजीवन फिल्म्स” के बैनर तले,  नागेंद्र मजूमदार की यह फिल्म कई सिनेमाघरों में 5 हफ्ते चली । उस समय यह बहुत बड़ी बात थी और जयराज जी की तूती बोलने लगी।  उन्हें गाना नहीं गाते आता था उन्होंने संगीत गुरु बी.आर. देवधर से गाना सीखा और उन्हीं के प्रयासों से भारत  जर्मन की, संयुक्त रूप से बन रही फिल्म “शिकारी” में प्रमुख भूमिका मिली।

जिसकी शूटिंग हैदराबाद में हुई थी। इसके सफल होने पर उन्हें पतित पावन (अहिल्या उद्धार)में काम मिला। फिर तो गाड़ी दौड़ पड़ी उन्होंने उस समय के सभी निर्देशकों, अभिनेत्रियों  (सुरैया के साथ 7 फिल्में-हमारी बात, सिंगर ,अमर कहानी, राजपूत, रेशम में नायक, एक में सहनायक) , ललिता पवार, शकीला, देविका रानी, नूरजहां (हमजोली) , सातारा देवी (स्वामी)जैसी पचास अभिनेत्रियों   के  नायक रहे। महात्मा गांधी की हत्या पर बनी  मार्क रोब्सन की अमेरिकी फिल्म “नाइन आवर्स टू रामा” में जीडी बिड़ला की भूमिका की थी, पर ये फिल्म भारत में प्रदर्शित नहीं हो सकी। “माया” में आईएस जौहर थे। ये भी अमेरिकी फिल्म थी। इंडोनेशिया की “परदेशी” में भी काम किया। मुंबई टॉकीज के मालिक हिमांशु राय ने “भाभी” के लिए जब उन्हें अनुबंधित किया तो खलबली मच गई, कारण मुंबई टॉकीज बाहर वालों को कभी प्रवेश नहीं देते थे । फांज आस्टिन की इस फिल्म  ने रजत जयंती मनाई। कलकत्ता में 80 सप्ताह चली।  जो सब से समय का कीर्तिमान है ।   72 वर्ष फिल्मों में योगदान देने वाले जयराज को दादा साहब फाल्के पुरस्कार ( 1980)  मिला, वह चरित्र भूमिकाओं के लिए मिला, नायक के लिए नहीं।पचास के दशक में उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार मिला। 

वे सत्रह वर्ष की उम्र में वर्ल्ड बॉडी ब्यूटिफूल कांटेस्ट में सातवें नंबर पर रहे। वे ओलंपिक में रेसलिंग के रेफरी हुआ करते थे।

नरगिस, भारत भूषण और खुद को लेकर उन्होंने “सागर” फिल्म बनाई (हालांकि उन्होंने तीन और फिल्में बनाई)जो लॉड टेनिसन की (“इरोच गार्डेन”पर आधारित) फ्लॉप रही। (कॉलेज में सागर नाम की कविता पढ़ते थे। ऐसी से प्रेरित होकर यह फिल्में बनाई )कारण उन्हें व्यवसायिक  लटके झटके नहीं आते थे।।

नायक के रूप में उनकी अंतिम फिल्म 1965 में बनी “खूनी कौन, मुजरिम कौन”? था। बढ़ती उम्र के कारण उन्होंने चरित्र भूमिकाएं की। दो एक्सीडेंट होने  से वे चलने फिरने में असमर्थ हो गये तो फिल्मों से दूरी बना ली। अंतिम समय में उनके साथ गीता बेटी थी। पत्नी  कैंसर के कारण चल बसी। वर्तमान में टीवी निर्माता निर्देशक राजन शाही उनके दोहते हैं। फिल्मी दुनिया में छोटे कलाकारों लेते हैं उन्होंने कमेटी बनाई सामाजिक कार्य किए और स्टेज शो करके पैसा इकट्ठा करते थे छोटे कलाकारों की मदद की जा सके।

11अगस्त , 2000 बांद्रा, मुंबई के लीलावती अस्पताल में निधन हुआ।   इतने बड़े कलाकार के निधन पर फिल्मी दुनिया के बहुत कम लोग अंतिम संस्कार में आए।  दारा सिंह,  राजा मुराद,  पीएम  व्यास और चंद लोग ही थे। 

“सादा जीवन, उच्च विचार” वाले जयराज मूक से बोलती फिल्मों के साक्षी रहे, महत्वपूर्ण स्तंभ थे। साधारण, सौम्य, समर्थ कलाकार को सलाम।

साभार: अनंत श्रीमाली