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आज जन्माष्टमी का पावन पर्व है । भारत में ही नही वरन् सम्पूर्ण विश्व में श्री कृष्ण जी के जन्मोत्सव का महाआयोजन मनाया जा रहा है । कान्हा का जन्म भाद्रपद माह के कृष्णपक्ष की अष्टमी के दिन मध्यरात्रि को हुआ था और यशोदानंदन अपनी माँ की आठवीं संतान थे । मोहन को भगवान विष्णु का आठवाँ अवतार माना जाता है । इस प्रकार से आठ अंक का संयोग उनके जन्म और अस्तित्व के संग जुड़ा है । चूंकि केशव का जन्म मथुरा में हुआ था अतः सबसे बड़ा आयोजन भी प्रतिवर्ष मथुरा में ही किया जाता है ।

मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि हमारे बाल्यकाल में घर में इस महोत्सव के आयोजन की तैयारियाँ लगभग एक सप्ताह पूर्व से ही आरंभ हो जाती थीं । कारागार का एक लकड़ी का सुंदर सा प्रतिरूप था जिसे कागज की रंगबिरंगी पन्नियों से सजाया जाता था । घर के एक बड़े स्थान पर एक बड़ा सा मंच बनाया जाता था जिसमें साड़ियों की सहायता से दीवारें व छत बनायी जाती थी। फिर उस सजे संवरे हुए कारागार के प्रतिरूप को मंच के मध्य में स्थापित कर दिया जाता था ।

एक स्थान पर कुछ पत्थरों की सहायता से छोटा सा पहाड़ बनाकर उसमें शिव की मूर्ति स्थापित की जाती थी और उनकी जटाओं से पानी की धार निकलते रहने की प्रक्रिया का भी प्रबंध किया जाता था । इसके अलावा अनेक भगवान की मूर्तियाँ व अन्य मूर्तियों के संग रंगबिरंगी झालरों को चारो ओर लगा कर जगमग किया जाता था । बस कुछ इस तरह से एक भव्य और मनोहारी झाँकी सज कर तैयार हो जाती थी ।

हम सब बच्चे मध्यरात्रि की अत्यंत उत्सुकता के संग प्रतीक्षा करते थे । माँ और दादी अनेक प्रकार के व्यंजन बनाती थीं और राधापति के आगमन पर उन्हे भोग लगाने हेतु नानाप्रकार के प्रसाद भी बनाये जाते थे जिसमें सबसे प्रमुख था पंचामृत जो दूध, दही,शहद,घी और शर्करा के मिश्रण से बनाया जाता था । इसके अतिरिक्त पंजीरी भी मुख्य प्रसाद का एक अवयव थी । हम सब बच्चे पूजा के उपरांत पंचामृत का प्रसाद पाने को आतुर रहते थे ।  रात्रि के 10 बजे के उपरांत अतिथि आने लगते थे । और भजन-कीर्तन आरंभ हो जाते थे । खूब भीड़ लगती थी और सम्पूर्ण वातावरण कमलनयन के रंग में रंग जाता था । जैसे जैसे रात्रि के बारह बजे की घड़ी निकट आती थी हम सबका उत्साह एवं भक्ति चरम पर होती थी ।

रात्रि के बारह बजे पिताजी उस कारागार के द्वार खोलते थे और वासुदेव की मूर्ति जिनके सिर पर मधुसूदन चुंबकीय मुस्कान के संग लेटे हुए होते थे, को कारागार से बाहर निकालते हैं । पूजन आरंभ होता था और सभी कर्मकांडों के उपरांत पार्थसारथी प्रकट होते थे । उनके आगमन पर आरती कुंज बिहारी की तथा ओम जय जगदीश हरे का समवेत् उद्घोष होता था। तब यह आयोजन संपन्न होता था । तदोपरांत नंदगोपाल के चरणों में आशीर्वाद लेकर प्रसाद का वितरण होता था । इस प्रकार एक सप्ताह से अधिक चलने वाला परिश्रम अपने श्रेष्ठतम फल के संग हमें आत्मसंतोष के चरम पर पहुँचा देता था ।

आज परिस्थिति व काल परिवर्तित हो चुका है । भजन व पूजन के तौर तरीकों में भी बदलाव आये हैं । पर वो आनंद की अभूतपूर्व अनुभूति और ह्दय से फूटते संतुष्टि के धारे वैसे नही दिखते । यह समय चक्र है और परिवर्तन प्रकृति का नियम है पर कुछ परिवर्तन   भूतकाल के सापेक्ष कम मनोहारी होते हैं । वसुदेवात्मज का आशीर्वाद व निर्देश रहा तो पुनः अतीत के पटल पर चलती इस अलौकिक आयोजन की चित्रकथा को मूर्तरूप दूँगा ।

लड्डूगोपाल के प्रति जनमानस की अगाध् श्रद्धा है और यह श्रद्धा भक्त की आत्मा के पोरों से रिसती है । मुरारी इस देश की आत्मा में वास करते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि देश को चलायमान रखने की अनंत उर्जा का स्रोत केशव के करकमलों से निकलती है । वे आदि हैं,अनंत हैं और संपूर्ण ब्रहांड के पोषक भी । वे जीवनदायक हैं, मोक्षदायक हैं और मानव जीवन के उद्धारक भी । वे दिव्य हैं, अनुपम हैं और अलौकिक भी । वे मोहनी हैं, रागिनी हैं और संजीवनी भी । समस्त प्राणीजगत के आनंद व मंगल हेतु मैं श्री राधापति से कामना करता हूँ और उनके श्रीचरणों में अपने अस्तित्व का समर्पण करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि वे जगत का कल्याण करें । आप सब भी जन्माष्टमी के अद्भुत् दृश्य को आत्मसात करें और सदैव प्रसन्नचित्त रहें । जन्माष्टमी की आप सबको हार्दिक शुभकामनायें ।

– डॉ.आशीष तिवारी
(चिकित्सक, लेखक एवं कवि)
मुंबई