आती रहेंगी बहारें, जाती रहेंगी बहारें…गुलशन के गानों ने बना दिया था बावरा

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आपने यह गीत अवश्य सुना होगा “मेरे देश की धरती सोना उगले उगले”। 15 अगस्त जैसे राष्ट्रीय पर्व पर ये गीत ही  सुबह सुबह ऊर्जा  देता है। महेंद्र कपूर की आवाज़, मनोज कुमार पर फिल्माया और “उपकार”  के इस कालजयी गीत के गीतकार का नाम-गुलशन मेहता जिन्हें हम गुलशन बावरा के नाम से जानते हैं। आज 7 अगस्त (2009)को उनकी पुण्यतिथि है। 12 अप्रैल, 1938 को अविभाजित भारत, पंजाब प्रोविंस के शेखपुरा (लाहौर के पास, अब पाकिस्तान) में जन्मे गुलशन जी के पिता रूपलाल मेहता का कंस्ट्रक्शन का व्यवसाय था। 

अपने भाई चमन लाल मेहता के साथ पिता लाभचंद जी के साथ रहते थे। मां विद्यावती धार्मिक प्रवृत्ति की, संगीत की ज्ञाता थी। उनका बचपन  उन्हीं के साथ बीता।तब छह वर्ष के थे। देश विभाजन के समय सांप्रदायिक दंगों में उनकी आंखों के सामने माता पिता की हत्या(पिता को तलवार से और मां को गोली से) हुई। उनके बड़े भाई रात के अंधेरे में, खेतों में छुपते छुपाते मिलिट्री ट्रक में बैठकर बड़ी बहन के पास जयपुर आए। तब गुलशन जी की उम्र 10 वर्ष थी। कुछ दिन तक यहीं रहे। फिर बड़े भाई की नौकरी दिल्ली लगने से वे दिल्ली आ गए। वहीं से स्नातक की । फिर रेलवे में, कोटा में नौकरी लगी लेकिन वहां गए तो पता चला पद भर गया ।

तब उन्हें मुंबई में 1955 रेलवे में गुड्स क्लर्क की नौकरी लगी। उनका काम था पंजाब से जो गेहूं आता था उसके बोरों को गोदाम में रखवाना । गेहूं की बालियों और उसे देखकर ही संभवत: “मेरे देश की धरती” जैसा गाना उपजा होगा । यह गीत राज साहब ने “जिस देश में गंगा बहती है” के लिए लिखवाया था और  पसंद भी  था लेकिन शैलेंद्र का गीत “होठों पर सच्चाई.. जहां दिल में सफाई रहती हैं”  भारी पड़ा। वैसे वे 6 वर्ष की उम्र से ही कविता लिखने लग गए थे। इसलिए सरकारी नौकरी में मन लगा नहीं और छोड़ दी। 8 वर्षों तक मुंबई में कड़ा संघर्ष किया।  मनोज कुमार दिल्ली के थे और मित्र थे । कुछ रास्ता बना।पहली फिल्म  “चंद्र सेना” थी। “सट्टा बाजार” के गीत “चांदी के चंद टुकड़े” बहुत लोकप्रिय हुआ।

इसके पोस्टर में केवल 3 नाम थे निर्देशन रविंद्र दवे, संगीतकार कल्याणजी आनंदजी और गीतकार गुलशन बावरा। उनकी दुबली-पतली, लंबी काया,  हाफ रंग बिरंगा, चितकबरा शर्ट और हुलिया देख कर फिल्म वितरक शांति भाई दवे ने उन्हें “बावरा” नाम दिया।तुम गीतकार कम, बावरा ज्यादा लगते हो। इस दीवाने ने भी नाम बावरा रख लिया। शौकिया तौर पर कुछ फिल्मों में कॉमिक रोल भी किये। “उपकार” में मोहन चोटी के भाई  बने थे। “जंजीर” में उन पर उन्हीं का गीत फिल्माया गया था (दीवाने हैं दीवानों को नजर चाहिए) रफी- लता साहब ने  ताड़देव के स्टुडियो में गीत रिकॉर्ड कर दिया था ।

उस दिन रफी साहब का रोजा था।  उसी समय गुलशन बावरा जी स्टूडियो में आए, उन्होंने रफी साहब से कहा कि यह गीत इस नाचीज पर फिल्माया जाना है तब रफी साहब ने थोड़ी सी, आवाज बदल कर(रोजे के बावजूद) अलग ढंग से इसकी रिकॉर्डिंग की ।फिर यह गीत और गुलशन जी सुपर डुपर रहे। मां की संगत के कारण कुछ भजन भी लिखे।  रोमांटिक इमेज  वाले बावरा जी ने  वियोग, श्रृंगार के खूब गीत लिखें(खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे, कसमे वादे निभाएंगे हम, आती रहेंगी बहारें) हालांकि उनका दीवानापन एक तरफा होता था।कल्याण जी आनंद जी के  संगीत निर्देशन में 69  गीत तो आर डी बर्मन के साथ 150 गीत लिखे।

“जंजीर” ने (यारी है ईमान मेरा) उपकार किया और फिल्म फेयर दिलाया। उपकार ने भी फिल्म फेयर दिलवाया। 42 वर्षों के फिल्मी कैरियर में उन्होंने 240 गीत लिखे। वे उस ज़माने के सबसे महंगे गीतकार माने जाते थे। एक गीत के एक लाख रुपये तक लिए उन्होंने। इतनी राशि में उस समय बढ़िया फ्लैट आ जाता था परंतु पैसों की लालच में कभी भी गीतों के स्तर के साथ समझौता नहीं किया। वे लिखने के लिए नहीं लिखते थे। जब मन,मूड और मस्तिष्क काम करता था तभी लिखते थे।  तभी उनकी कलम से शानदार गीत निकले। हर मौके(सिचुएशन) के लिए उनके तरकश में गीत होते थे।

हल्के-फुल्के पर स्तरीय गीत भी उन्होंने लिखे- दुक्की पे दुक्की हो या किसी पे दिल अगर आ जाए) या उदासी के गीत हों- लहरों की तरह यादें दिल से टकराती है, बना के क्यों बिगाड़ा रे,  तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे , जाने क्या हुआ रे या महमूद पर फिल्माया गीत मुस्कुरा रे लाडले मुस्कुरा , आपसे हमको बिछड़े हुए, अगर तुम ना होते …जैसे सैकड़ों गीत हैं।”विश्वास” का गीत चांदी की दीवार न तोड़ी प्यार भरा दिल तोड़ दिया। उन्हें 2012 में मरणोपरांत किशोर कुमार सम्मान भी मिला। 1995 में आई “हकीकत” उनकी अंतिम गीत वाली फिल्म थी जिसके बोल थे- पपिया झपिया पाले हम, अंखियों के पेंच लड़ा ले। कुछ 1999 में  अंतिम फिल्म “जुल्मी” को मानते हैं।

वे बोर्ड ऑफ इंडियन फार्मिंग राइटर सोसायटी के निदेशक रहे। गुलशन जी शादी के पहले और बाद में अपने दोस्त के साथ पत्नी मंजू के (उनकी कोई संतान नहीं थी)साथ रहते थे।  शादी के बाद विवाद होने से अलग रहने लगे और कुछ पैसों से गृहस्थी चलने लगी। तब उन्होंने छोटा फ्लैट किराए पर लिया। ठीक ठाक पैसे आने पर बड़ा फ्लैट ले लिया ।छोटे फ्लैट में कुछ विवाद होने पर वह 10-12 साल बंद रहा जिसमें उनकी बहुत मूल्यवान, कीमती चीजें, गीतों की डायरी, तस्वीरें, दुर्लभ वस्तुएं खराब हो गई। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और नई शुरुआत की। वे भाव, भाषा, संवेदना, वेदना के गीतकार थे। बनी बनाई धुन, संगीत पर बैठाने के लिए गीत नहीं लिखते थे।

शब्द या भाषा से खिलवाड़  बिल्कुल पसंद नहीं था। (देखें-तुम्हें याद होगा कभी हम मिले थे या आशा भोंसले का “खेल खेल में”,  आर डी बर्मन के संगीत का गीत “सपना मेरा टूट गया” आशा भोंसले, रवि मल्होत्रा की रवि टंडन वाली “झूठा कहीं का” फिल्म का गीत “जीवन के हर मोड़ पर” या “रफूचक्कर₹ का गीत “कितने भी तू कर ले सितम”,  “लाल बंगला” का उषा खन्ना संगीतकार,  मुकेश का गीत “चांद को क्या मालूम”आदि)।  एक फिल्म “मानवता” प्रदर्शित नहीं हो पाई। वे गीतों में लच्छेदार भाषा का प्रयोग नहीं करते थे। हालांकि वे स्पष्ट कहते थे कि गीत को व्याकरण की अशुद्धियों और वैचारिक गड़बड़ियों से परे होना चाहिए।

फिल्मी दुनिया के होने के बावजूद तड़क-भड़क, चकाचौंध से दूर, ईश्वर में आस्था रखने वाले बावरा जी का निधन 7 अगस्त को मुंबई के बांद्रा स्थित पाली हिल निवास में लंबी बीमारी के बाद, दिल का दौरा पड़ने से  निधन हुआ।  अंतिम इच्छानुसार उनकी देह जेजे अस्पताल दान कर दी गई। मुंबई निवासी व्यंग्यकार और लोकप्रिय कवि डॉ वागीश सारस्वत के माध्यम से मुझे  मुंबई के कांदिवली के तेरापंथ भवन में  गुलशन जी के कार्यक्रम के संचालन का अवसर मिला ।तब उनसे  हुई भेंट अभी तक याद है।

हंसमुख मिजाज  वाले गुलशन बावरा ने “खुद को रुला के जग को हंसाया। “उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि – उन्हीं के शब्दों से _”ता कयामत है जो चिरागों की तरह जलते रहें, प्यार हो बंदों से ये…” अब वे ” जीवन के हर मोड़ पर मिल जाएंगे हमसफर” यह संभव नहीं है….

साभार: अनंत श्रीमाली