क्या सचमुच जरूरी है सेंट्रल विस्टा

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क्या मोदी सरकार का अत्यंत महत्वाकांक्षी व बेहद खर्चीला सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट (Central Vista Project) सचमुच देश की अनिवार्य आवश्यकता है? क्या इसके बगैर काम नहीं चल सकता? देश कोरोना संकट से उबर नहीं पाया है. बेरोजगारी चरम पर है. बहुत बड़ी तादाद में किसान आंदोलन करने को मजबूर हैं. अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी है. बैंकों का एनपीए या डूबत खाता बढ़ता जा रहा है. सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम बेचकर उस रकम से अर्थव्यवस्था (Economy) में जान फूंकने का इरादा किया है.

देश के 30 करोड़ लोग भूखे पेट सोने को विवश हैं. इसके बावजूद सरकार ने 2000 करोड़ से ज्यादा की लागत वाली सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना बनाई है जिसका विरोध शुरू हो गया है. कांस्टीट्यूशनल कंडक्ट ग्रुप के बैनर तले 69 अवकाशप्राप्त नौकरशाहों (69 Ex-Civil Servants) ने इसका विरोध करते हुए अपील की कि इस रकम का निवेश स्वास्थ्य ढांचे में किया जाना चाहिए. अच्छे अस्पताल और बेहतर स्वास्थ्य सेवा देश की प्राथमिकता होनी चाहिए. मेडिकल कालेजों की तादाद बढ़ाई जाए ताकि अधिक संख्या में डाक्टर उपलब्ध हो सकें. अभी आबादी के अनुपात में डाक्टरों की तादाद बेहद कम है. शहरी क्षेत्र में 1000 लोगों पर सिर्फ 1 डाक्टर उपलब्ध है और ग्रामीण व आदिवासी क्षेत्रों में तो हालात और भी खराब हैं. अनुभवी नौकरशाहों के इस समूह ने प्रधानमंत्री मोदी (Narendra modi) से सवाल किया कि स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी प्राथमिकताओं को ताक पर रखकर ऐसी बेकार व अनावश्यक योजना को प्रधानता क्यों दी जा रही है? इस पत्र पर नामी आईएएस व आईपीएस अधिकारियों के हस्ताक्षर हैं. पत्र में कहा गया कि चिंता का विषय है कि जिस तरीके से योजना के लिए पर्यावरण मंजूरी हासिल की गई, उससे सेंट्रल विस्टा के हरित स्थानों व हेरिटेज भवनों को अनावश्यक अड़चन माना गया है.

सेंट्रल विस्टा में सर्वसुविधायुक्त नया संसद भवन बनाने का प्रावधान है जिसमें अधिक सदस्य बैठ सकेंगे. इसके अलावा नार्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, राष्ट्रपति भवन, सेंट्रल सेक्रेटेरिएट सभी सेंट्रल विस्टा में आते हैं. सैंडस्टोन से निर्मित इन इमारतों की हालत इतनी कमजोर नहीं है कि उनकी जगह नए भवन बनाए जाएं. ब्रिटिश शासनकाल में ल्यूटन और हर्बर्ट बेकर जैसे वास्तुविदों ने इन्हें बनाया था. शायद पीएम को लगता है कि ये इमारतें विदेशी गुलामी की याद दिलाती हैं. वे राष्ट्रवाद और भारतीय संस्कृति के अनुरूप नई रचना करवाना चाहते हैं.

प्रश्न यह भी उठता है कि क्या ऐसा निर्णय लेते समय हेरिटेज कमेटी की अनुमति ली गई? गुजरात की एक कंपनी को सबसे ऊंची बोली लगाने पर भी सेंट्रल विस्टा का ठेका क्यों दिया गया? इसके निर्माण से पीएम का नाम इतिहास में अमर हो जाएगा लेकिन इसमें लगने वाली हजारों करोड़ की रकम तो करदाता की जेब से जाएगी. इसी देश में डा. राजेंद्रप्रसाद व एपीजे अब्दुल कलाम जैसे सादगीपसंद राष्ट्रपति हुए थे तथा लालबहादुर शास्त्री जैसे सरल व मितव्ययी प्रधानमंत्री हुए थे. राजेंद्र बाबू ने राष्ट्रपति के रूप में मिलने वाली 10,000 रुपए की तनख्वाह को तब बहुत अधिक बताकर सिर्फ 5000 रुपए लेना स्वीकार किया था. आज ऐसा चिंतन कहां रह गया! किफायत की जगह शाहखर्ची ने ले ली है.