Supreme court
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नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) ने सोमवार को कहा , ‘‘आपात काल कुछ ऐसा है जो नहीं होना चाहिए था” और इसके साथ ही वह 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के दौरान इस बारे में की गयी उद्घोषणा को ‘पूरी तरह असंवैधानिक’ घोषित करने के लिये 94 वषीय वयोवृद्ध महिला की याचिका पर विचार के लिये तैयार हो गया। शीर्ष अदालत ने इस याचिका पर केन्द्र को नोटिस जारी किया लेकिन स्पष्ट किया कि वह इस पहलू पर भी विचार करेगा कि 45 साल के अंतराल के बाद इस उद्घोषणा को लेकर क्या व्यावहारिक या अपेक्षित’ है।

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति ऋषिकेष रॉय की पीठ ने इस सवाल पर मंथन किया कि इतने लंबे अंतराल के बाद इसमें किस तरह की राहत दी जा सकती है और कहा , ‘‘हमें इसमें परेशानी हो रही है। आपातकाल कुछ ऐसा है जो नहीं होना चाहिए था। पीठ ने 94 वर्षीय याचिकाकर्ता वीरा सरीन से कहा कि वह आपातकाल को असंवैधानिक घोषित करने से संबंधित अनुरोध के बारे में 18 दिसंबर तक अपनी याचिका में संशोधन करे।

वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे ने वयोवृद्ध वीरा सरीन की ओर से बहस करते हुये कहा कि आपातकाल ‘छल’ था और यह संविधान पर ‘सबसे बड़ा हमला’ था क्योंकि महीनों तक मौलिक अधिकार निलंबित कर दिये गये थे। देश में 25 जून, 1975 की आधी रात से कुछ क्षण पहले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार की सिफारिश के तहत तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी थी। यह आपातकाल 1977 में खत्म हुआ था।

साल्वे ने कहा कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण विचारणीय मामला है और अगर राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिये संवैधानिक अधिकारों के दुरूपयोग के सिद्धांत राष्ट्रपति की उद्घोषणा पर लागू हो सकते हैं तो नागरिकों के अधिकार भी इस सिद्धांत के दायरे में आने चाहिए। उन्होंने कहा कि वे आपातकाल को सत्ता का दुरूपयोग घोषित करने के लिये पहली नजर में शाह कमीशन की रिपोर्ट को आधार बना रहे हैं और अगर फिर कभी इस तरह की स्थिति पैदा होती है तो न्यायालय इस पर गौर कर सकता है।

केन्द्र ने 1977 में देश के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जे सी शाह की अध्यक्षता में एक जांच आयोग बनाया था जिसे आपातकाल के दौरान हुयी सारी ज्यादतियों की जांच करनी थी। न्यायमूर्ति कौल ने साल्वे से जानना चाहा कि क्या न्यायालय इतने लंबे अंतराल के बाद इन सभी मुद्दों पर गौर कर सकता है और क्या यह उचित होगा। इस पर साल्वे ने कहा कि याचिकाकर्ता ने आपातकाल के दौरान बहुत दुख झेले हैं और न्यायालय को देखना चाहिए कि उस दौर में इस वृद्धा के साथ किस तरह का व्यवहार हुआ।

साल्वे ने कहा, ‘‘दुनिया में, युद्ध अपराधों के लिये सजा दी जा रही है। लैंगिक अपराधों के लिये सजा हो रही है। आप देख सकते हैं कि लोगों को 80-90 साल बाद भी उनके कृत्यों के लिये सजा मिल रही है। इतिहास को खुद को दोहराने की अनुमति नहीं दी जा सकती। महीनों तक नागरिकों के अधिकार निलंबित रखे गये। यह संविधान के साथ छल था।”

उन्होंने कहा, ‘‘यह हमारे संविधान पर सबसे बड़ा हमला था। यह ऐसा मामला है जिस पर हमारी पीढ़ी को गौर करना होगा। इस पर शीर्ष अदालत को फैसला करने की आवश्यकता है। यह राजनीतिक बहस नहीं है। हम सब जानते हैं कि जेलों में क्या हुआ। हो सकता है कि राहत के लिये हमने बहुत देर कर दी हो लेकिन किसी न किसी को तो यह बताना ही होगा कि जो कुछ किया गया था वह गलत था।” उन्होंने कहा कि इतिहास में कुछ ऐसी बातें हैं जिन पर फिर से विचार करने और यह देखने की जरूरत है कि क्या सही काम किये गये थे और यह उनमें से ही एक विषय है।

साल्वे ने कहा कि यह मामला ‘काफी महत्वपूर्ण’ है क्योंकि देश ने देखा है कि आपातकाल के दौरान सिर्फ सत्ता का दुरूपयोग हुआ है। वीडियो कांफ्रेंस के माध्यम से सुनवाई के दौरान पीठ ने सवाल किया, ‘‘क्या न्यायालय इस प्रकरण पर विचार कर सकता है जो 45 साल पहले हुआ था। हम क्या राहत दे सकते हैं?” पीठ ने कहा, ‘‘हम मामले को बार-बार नहीं खोद सकते। वह व्यक्ति भी आज नहीं है।” साल्वे ने कहा कि राज्य में सांविधानिक मशीनरी विफल होने की स्थिति में संविधान के अनुच्छेद 356 से संबंधित प्रावधानों पर 1994 में एस आर बोम्मई प्रकरण में न्यायालय के फैसले के बाद यह सिद्धांत विकसित किया गया जो सरकार के गठन या अधिकारों के हनन के मामले में लागू किया जा सकता है।

उन्होंने कहा, ‘‘न्यायालय ने 45 साल बाद आदेश पारित किये हैं। पद के दुरूपयोग के मामले में विचार किया जा सकता है और जहां तक यह सवाल है कि इसमें क्या राहत दी जा सकती है तो एक दूसरा पहलू है।” साल्वे ने कहा कि अगर आप याद करें तो 1975 में आपातकाल की घोषणा के समय हम छात्र थे। यही वजह है कि मैं इस मामले में पेश हो रहा हूं। वीरा सरीन ने याचिका में इस असंवैधानिक कृत्य में सक्रिय भूमिका निभाने वालों से 25 करोड़ रुपए का मुआवजा दिलाने का भी अनुरोध किया है।

याचिकाकर्ता वीरा सरीन ने अपनी याचिका में दावा किया है कि वह और उनके पति आपातकाल के दौरान तत्कालीन सरकार के प्राधिकारियों और अन्य की ज्यादतियों के शिकार हैं। सरीन ने याचिका में कहा है कि उनके पति का उस समय दिल्ली में स्वर्ण कलाकृतियों का कारोबार था लेकिन उन्हें तत्कालीन सरकारी प्राधिकारियों की मनमर्जी से अकारण ही जेल में डाले जाने के भय के कारण देश छोड़ना पड़ा था। याचिका के अनुसार, याचिकाकर्ता के पति की बाद में मृत्यु हो गयी और उनके खिलाफ आपातकाल के दौरान शुरू की गयी कानूनी कार्यवाही का उन्हें सामना करना पड़ा था।(एजेंसी)