Some benches of the court may start functioning next week

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नयी दिल्ली. दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोमवार को एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि अदालत का काम न्याय देना है, समाज को संदेश देना नहीं। अदालत ने इसी के साथ कहा कि जेल प्राथमिक रूप से दोषियों के लिये हैं, न कि जनता को संदेश देने के लिये विचाराधीन कैदियों को हिरासत में रखने के लिये। इस साल फरवरी में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा के मामले में एक आरोपी को जमानत देते हुए न्यायमूर्ति अनूप जे भंभानी ने यह टिप्पणी की और दिल्ली पुलिस की उस दलील को खारिज कर दिया कि इस शुरुआती चरण में जमानत देने से समाज में प्रतिकूल संदेश जाएगा और राष्ट्रीय राजधानी में ऐसे अपराधों को होने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। न्यायाधीश ने कहा कि अगर अदालत को लगता है कि उसे न्यायिक हिरासत में रखने से जांच या अभियोजन का कोई उद्देश्य पूरा नहीं होने वाला तो आरोपी को जमानत देने से इनकार करने का कोई आधार नहीं है।

उच्च न्यायालय ने कहा, “जेल मुख्य रूप से दोषियों को सजा देने के लिये है, न कि समाज को कोई ‘संदेश’ देने के लिये विचाराधीन को रखने के लिये। अदालत का काम कानून के अनुरूप न्याय करना है, समाज को संदेश भेजना नहीं।” उच्च न्यायालय ने फिरोज खान को 50 हजार रुपये के निजी मुचलके और उसके दो रक्त संबंधियों द्वारा इतनी ही रकम की दो जमानत राशि जमा करने पर जमानत मंजूर करते हुए निर्देश दिया कि वह अदालत की इजाजत के बिना राष्ट्रीय राजधानी से बाहर नहीं जाएगा। याचिका के मुताबिक उसे तीन अप्रैल को उत्तर पूर्वी दिल्ली के दयालपुर पुलिस थाने में दर्ज एक प्राथमिकी के सिलसिले में हिरासत में लिया गया था। उस पर कथित तौर पर दंगा और एक घर को नष्ट करने के लिये आग लगाने या विस्फोटक पदार्थ का इस्तेमाल करने की धाराओं में मामला दर्ज किया गया था। प्राथमिकी में शिकायतकर्ता के बयान के मुताबिक 24 फरवरी को कुछ दंगाइयों ने उसकी दुकान को आग लगा दी और लाखों रुपये लूट लिए। खान ने जमानत मांगते हुए कहा था कि न ही प्राथमिकी में उसका नाम है और न ही जांच के दौरान ऐसा कोई साक्ष्य जुटाया गया, जो उसे अपराध के साजिशकर्ता के तौर पर स्थापित करे।(एजेंसी)