रानी लक्ष्मीबाई जयंती: छोटीसी उम्र में दिखाया ऐसा साहस, बनी महिला बहादुरी की मिशाल

    Loading

    नई दिल्ली: सच्चे वीर कभी आपत्तियों से नहीं घबरातें हैं। कोई भी प्रलोभन उन्हें अपने कर्तव्य पालन से अलग नहीं कर सकते। उनका लक्ष्य उदार और चरित्र अनुकरणीय होता है। अपने पवित्र उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह सदैव आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ होते है। ऐसी ही भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई जिनकी आज 193 वीं जयंती है। 

    महारानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में 19 नवंबर 1835 को हुआ। रानी के पिता मोरोपंत तांबे एवं माता का नाम भागीरथी बाई था। महारानी के पितामह बलवंत राव के बाजीराव पेशवा की सेना में सेनानायक होने के कारण मोरोपंत पर भी पेशवा की कृपा रही थी। लक्ष्मीबाई को बाल्यकाल में मनुबाई के नाम से जाना जाता था। 

    लक्ष्मीबाई का विवाह गंगाधर राव से 1850  में हुआ था। वह झांसी के राजा थे। उन्हें सन 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। झांसी के कोने-कोने में आनंद की लहर प्रवाहित हुई, लेकिन चार माह के बाद उस बालक का निधन हो गया। सारी झांसी शोक सागर में निमग्न हो गई। 

    अपने पुत्र को खोने से राजा गंगाधर राव को धक्का पहुंचा कि वह फिर स्वस्थ न हो सके और 21 नवंबर 1853 को उनका निधन हो गया। वहीं रानी लक्ष्मीबाई के लिए महाराजा के निधन असहनीय था, लेकिन वह फिर भी घबराई नहीं, उन्होंने विवेक नहीं खोया। राजा गंगाधर राव ने अपने जीवनकाल में ही अपने परिवार के बालक दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर अंगरेजी सरकार को सूचना दे दी थी।

    लेकिन निधन के बाद 27 फरवरी 1854 को लार्ड डलहौजी ने गोद की नीति के अंतर्गत दत्तकपुत्र दामोदर राव की गोद अस्वीकृत कर दी और झांसी को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। मगर रानी लक्ष्मी बाई ने इस बात से साफ मना कर दिया और अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया था।

    अंग्रेजों पर पड़ी भारी

    लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों का डटकर मुकाबला किया। दोनों हाथों में तलवार लेकर घोड़े पर सवार और पीठ पर बच्चे को बांधकर झांसी की रानी अंग्रेजों पर टूट पड़ीं। अंग्रेज सेना उनके सामने कमजोर पड़ने लगी थी। रानी की किलाबंदी और उनका जज्बा अंग्रेजों पर भारी पड़ने लगा था। लेकिन अंग्रेजों की विशाल सेना के मुकाबले झांसी की सेना भला कब तक टिकती। आखिर में अंग्रेजों का झांसी पर कब्जा हो गया।

    स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश

    अंग्रेजो के साथ लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई बुरी तरह घायल हो गई थी। वह चाहती थीं कि उनका शरीर को अंग्रेज हाथ न लगाए। उनकी इच्छा के मुताबिक उनके कुछ सैनिकों ने लक्ष्मी बाई को बाबा गंगादास की कुटिया में पहुंचाया और कुटिया में ही 18 जून, 1858 को लक्ष्मी बाई ने वीरगति प्राप्त की। वहीं उनका अंतिम संस्कार किया गया। उन्होंने स्वातंत्र्य के लिए अपने जीवन की आहूति देकर स्वतंत्रता के लिए बलिदान का संदेश दिया।