सभी पूजनीय स्थलों में शक्तिपीठ का हैं अपना महत्व, जानें क्या है इसकी मान्यता

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हिंदू मान्यता के अनुसार, देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में 26, शिवचरित्र में 51, दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। वहीं ऐसा भी माना जाता है कि जब सती अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ में अपने पति का अपमान सहन नहीं कर पाई तो उसी यज्ञ में कूदकर भस्म हो गई। तब शिवजी अपनी पत्नी सती का जला हुआ अंग लेकर विलाप करते हुए सभी ओर घूमते रहे। जहां-जहां माता के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ निर्मित हो गए। तो आइये आज हम आपको बताते हैं 51 शक्तिपीठों में 10 शक्तिपीठों के बारे में…

शर्कररे शक्तिपीठ:

शर्कररे शक्तिपीठ, जहाँ माता की एक नेत्र (आँख) गिरी थी. यह स्थान पाकिस्तान में कराची के सुक्कर स्टेशन के निकट स्थित है। इसकी शक्ति- महिषासुरमर्दिनी और भैरव को क्रोधिश कहते हैं। इस शक्तिपीठ को शिवहारकराय शक्तिपीठ नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा नैनादेवी मंदिर, बिलासपुर, हि.प्र. को भी नेत्र शक्तिपीठ बताया जाता है, जहाँ देवी सती का दुसरा नेत्र गिरा था। 

वैसे कुछ मान्यताओ के अनुसार ५१ व ५२ शक्तिपीठ है तो कुछ के अनुसार १०८ शक्तिपीठ हैं। शक्तिपीठों के दर्शन मात्र से मनुष्य के पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे अतुलनीय सौभाग्य की प्राप्ति होती है। धर्म शास्त्रों में भी शक्तिपीठों के प्रभाव की महिमा बताई है। शर्कररे माता शक्तिपीठ के साथ पाकिस्तान स्थित कराची के पुराने मंदिरों में वरुण देव मंदिर, पंचमुखी हनुमान मंदिर, स्वामी नारायण मंदिर, शिव मंदिर, राधा गोपीनाथ मंदिर, मालिर मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, शंकर भोलेनाथ व श्री नवल मंदिर प्रसिद्ध हैं। 

कराची पाकिस्तान के समुद्री तट पे वरुण देवता का अतिप्राचीन मंदिर मिलना इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि वैदिक काल में ऋग्वेद वर्णित भगवानों में वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी की वंदना ही सर्वोपरि थी। त्रेता युग रामायण काल के राम सेतु निर्माण के समय के विशेष संदर्भ का उल्लेख भी आवश्यक है कि आखिर किस ताप के कारण वरुण देव पूजा इस क्षेत्र में जरुरत आन पड़ी होगी। जबकि वरुण देव के मंदिर आमतौर पर कम ही देखे जाते हैं। समुद्री छोर के बंदरगाहों से समुद्री यातायात व व्यापार के मद्देनजर भी ईश्वरीय तत्वों का शांत व सुगम बने रहना ही सभों के लिए हितकारी सिद्ध होता है।

महामाया शक्तिपीठ:

बहुत कम लोग जानते हैं कि कश्मीर में माता सती का एक बहुत ही जाग्रत शक्तिपीठ है जिसे महामाया शक्तिपीठ कहा जाता है। यदि आप कभी अमरनाथ गए होंगे तो निश्चित ही यहां के दर्शन किए होंगे। यह मंदिर भी अमरनाथ की पवित्र गुफा में ही है। अमरनाथ की इस पवित्र गुफा में जहां भगवान शिव के हिमलिंग का दर्शन होता है वहीं हिमनिर्मित एक पार्वतीपीठ भी बनता है, यहीं पार्वतीपीठ महामाया शक्तिपीठ के रूप में मान्य है।

कहते हैं जब माता सती ने आत्मदाह कर लिया था तब शिवजी ने उनके शव को लेकर रुद्र और दारुण अवस्था में धरती पर घुम रहे थे। तब जहां-जहां माता के अंग और आभूषण गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गए। पहलगांव के अमरनाथ में माता का कंठ गिरा था। इसकी शक्ति को महामाया और भैरव को त्रिसंध्येश्वर कहते हैं। यहां के दर्शन करने से जनम-जनम के पाप कट जाते हैं। अबकी बार यदि अमरनाथ बाबा के दर्शन करने जाएं तो इसके भी दर्शन जरूर करें।

अमरनाथ शक्तिपीठ भारत के कश्मीर में श्रीनगर से 141 किमी की दुरी 12700 फ़ीट की ऊंचाई पर स्तिथ है। अमरनाथ गुफा तक जाने के लिए दो रास्ते है। पहला बलतल जो श्रीनगर से 70 किमी की दुरी पर है। जबकी दुसरा रास्ता फल्गम जो 94 किमी की दुरी पर है। यह रास्ता चन्दंवारी, शेष्नाग और पंच्चात्रानी से हो कर गुजरता है। यह रास्ता बलतल रास्ते से ज्यादा अच्छा है और चन्दंवारी से 16 किमी की दुरी पर पवित्र अमरनाथ गुफा है। हर साल स्थानीय सरकार शिव भक्तो के लिए वार्षिक अमरनाथ यात्रा की व्यवस्था कराती है। यात्रा मुख्य रूप से जून से अगस्त तक होती है।

मानस शक्तिपीठ:

तिब्बत में मानसरोवर झील के किनारे पर ही मानस शक्तिपीठ स्थित है। इस स्थान पर सती माता की दायीं हथेली गिरी थी। यहां भगवान शिव को भैरव के रूप में पूजा जाता है व माता सती को दाक्षायणी के रूप में पूजा जाता है। देवी यहाँ दाक्षायणी के रूप में और भैरव बाबा यहाँ अमर के रूप में विराजमान हैं। ‘कैलास शक्तिपीठ’ मानसरोवर का गौरवपूर्ण वर्णन हिन्दू, बौद्ध, जैन धर्मग्रंथों में मिलता है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यह ब्रह्मा के मन से निर्मित होने के कारण ही इसे ‘मानसरोवर’ कहा गया। यहाँ स्वयं शिव हंस रूप में विहार करते हैं। जैन धर्मग्रंथों में कैलास को ‘अष्टपद’ तथा मानसरोवर को ‘पद्महद’ कहा गया है। इसके सरोवर में अनेक तीर्थंकरों ने स्नान कर तपस्या की थी।

मानसरोवर की यात्रा दुर्गम है। इसके लिए पहले पंजीकरण कराना होता है तथा चीन की अनुमति लेनी पड़ती है। उत्तराखण्ड के काठगोदाम रेलवे स्टेशन से बस द्वारा अल्मोड़ा, वहाँ से पिथौरागढ़ जाया जाता है। दूसरा विकल्प यह है कि बस द्वारा काठगोदाम से वैद्यनाथ, वागेश्वर, डीडीहाट होकर पिथौरागढ़ पहुँचा जाए या सीधे टनकपुर रेलवे स्टेशन से पिथौरागढ़ जाया जाए। वहाँ से ‘थानीघाट'[7] सोसा जिप्ती मार्ग से गंटव्यांग गुंजी, वहाँ से नवीडांग होकर हिमाच्छादित 17900 फुट ऊँचे लिपुला पार कर तिब्बत होते हुए तकलाकोट मण्डी के आगे टोयो, रिंगुंग बलढक होकर समुद्र तल से 14950 फुट ऊँचे मानसरोवर के दर्शन होते हैं।

अन्य सुगम विकल्प है-अल्मोड़ा से अस्कोट, नार्विंग, लिपूलेह खिण्ड, तकलाकोट होकर। यह 1100 किलोमीटर लंबा मार्ग है। इसमें अनेक उतार-चढ़ाव हैं। जाते समय 70 किलोमीटर सरलकीट तक चढ़ाई फिर 74 किलोमीटर उतराई है। तकलाकोट तिब्बत का पहला गाँव है। तकलाकोट से ताट चौन के मार्ग से ही मानसरोवर है। तारकोट से 40 किलोमीटर पर मांधाता पर्वत पर स्थित 16200 फुट की ऊँचाई पर गुलैला दर्रा है। इसके मध्य में बायीं ओर मानसरोवर, दाहिनी ओर राक्षस ताल, उत्तर की ओर कैलास पर्वत का धवल शिखर है। दर्रा समाप्त होने पर तीर्थपुरी नामक स्थान है, जहाँ गर्म पानी के झरने हैं। इसके निकट ही गौरी कुण्ड है।

वैसे नेपाल होकर भी मानसरोवर जाया जा सकता है। इधर से जाने पर काठमाण्डू से मानसरोवर लगभग 1000 किलोमीटर पड़ता है। यह यात्रा प्राइवेट टैक्सी या कार से करना सुविधाजनक है। काठमाण्डू से ही टैक्सी मिल जाती है। नेपाल-चीन की सीमा पर स्थित है-फ़्रेण्डशिप ब्रिज’। यहाँ कस्टम क्लियरेंस तथा अन्य प्रमाण आदि की जाँच की जाती है। यहाँ के बाद तिब्बत में ‘नायलम’ पहुँचते हैं, जो समुद्रतल से 3700 मीटर ऊँचा है। एक दिन में 250-300 किलोमीटर यात्रा की जाती है तथा स्थान-स्थान पर रुकते हुए जाया जाता है। सागा में पहले पड़ाव पर विश्राम के लिए होटल मौजूद हैं। सागा से 270 किलोमीटर दूर प्रयाग है, वहाँ भी होटल हैं। लगभग 4 दिनों बाद ‘विश्व की छत’ मानसरोवर पहुँचते हैं।

विरजा शक्तिपीठ:

इस शक्तिपीठ के स्थान को लेकर मतांतर है। कुछ विद्वान इसको ‘जगन्नाथपुरी’ में भगवान श्री जगन्नाथ जी के मंदिर के प्रांगण में स्थित भैरव ‘जगन्नाथ’ को पीठ मानते हैं।

‘उल्कले नाभिदेशस्तु विरजाक्षेत्रनुच्यते। 
विमला सा महादेवी जगन्नाथस्तु भैरवः॥’

इस स्थान पर सती की ‘नाभि’ का निपात हुआ था। जबकि कुछ विद्वान ‘पूर्णागिरि’ में नाभि का निपात मानते हैं। यहाँ की शक्ति ‘विमला’ तथा भैरव ‘जगन्नाथ पुरुषोत्तम’ हैं। 108 शक्तिपीठों की सूची में ‘विरजा पीठ’ का उल्लेख नहीं है, अपितु वहाँ पुरुषोत्तम पीठ का उल्लेख है, जिसकी शक्ति का नाम ‘विमला’ है।

‘गंगायां मंगला नाम विमला पुरुषोत्तमे।
‘गंगायां मंगला प्रोक्ता विमला पुरुषोत्तमे॥

इस तरह शब्दार्थ की दृष्टि से ‘विरजा’ तथा ‘विमला’ दोनों ही एक ही शक्तियाँ हैं। उनमें अंतर नहीं है और यही ‘कात्यायनी विरजा’ तथा ‘विमला उभय’ नाम से दो विभिन्न स्थानों पर स्थित हैं। अतः दोनों ही स्थान शक्तिपीठ के रूप में मान्य हैं। संपूर्ण ओडिशा (तत्कालीन उत्कल) भगवती का नाभि क्षेत्र कहा जाता है। उत्कल किसी नगर या गाँव का नहीं वरन् एक देश या राज्य का नाम है, जो विरजा क्षेत्र है।

‘विरजा’ शब्द को ‘क्षेत्र’ शब्द के विशेषण के रूप में लेने पर समग्र उत्कल ही ‘मलविमुक्त’ है, जहाँ की आराध्या ‘विमला’ हैं तथा भैरव ‘जगन्नाथ पुरुषोत्तम’। पुरी भुवनेश्वर के आगे है, जो देश के विभिन्न स्थानों से रेल तथा सड़क मार्ग से जुड़ा है। याजपुर हावड़ा वाल्टेयर रेलवे लाइन पर वैतरणी रोड स्टेशन से लगभग 18 किलोमीटर दूर वैतरणी नदी के तट पर स्थित है। याजपुर के लिए वैतरणी रोड स्टेशन से ही बस की सुविधा उपलब्ध है।

गण्डकी शक्तिपीठ:

नेपाल में गंडकी नदी के तट पर पोखरा नामक स्थान पर स्थित मुक्तिनाथ मंदिर, जहां माता का मस्तक या गंडस्थल अर्थात कनपटी गिरी थी। इसकी शक्ति है गण्डकी चण्डी और शिव या भैरव चक्रपाणि हैं। इस शक्तिपीठ में सती के “दक्षिणगण्ड” (कपोल) का पतन हुआ था।

यह मंदिर पोखरा से 125 किलोमीटर दूर है। यह मंदिर पैगोडा आकार का बना हुआ है। विष्णुपुराण में इसका नाम मुक्तिनाथ मंदिर के रूप में वर्णित है। यहां की नदी में से शालिग्राम पत्थर बहुतायत में निकलते हैं। कहा जाता है कि जो भी यहां आकर गंडकी नदी में स्नान करने के बाद माता के दर्शन कर लेता है वह पापमुक्त होकर मुक्त हो जाता है और स्वर्ग को प्राप्त करता है।

बहुला शक्तिपीठ:

देवी का यह शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के हावड़ा से 145 किलोमीटर दूर पूर्वी रेलवे के नवद्वीप धाम से 41 कि.मी. दूर कटवा जंक्शन से पश्चिम की ओर ‘केतुग्राम’ या ‘केतु ब्रह्म गाँव’ में स्थित है। बहुला शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह पवित्र स्थल मां दुर्गा और भगवान शिव को समर्पित है। यहाँ की शक्ति ‘बहुला’ तथा भैरव ‘भीरुक’ हैं।

बहुला शक्तिपीठ को भारत के ऐतिहासिक स्थलों में से एक माना जाता है। यहां पर हिन्दू भक्तों को देवी शक्ति के रूप में एक अलग ही तरह की ईश्वरीय ऊर्जा मिलती है। यहां मंदिरों में भक्तजन रोजाना सुबह देवी माँ को मिठाई और फल चढ़ाकर पूजा करते हैं।[1]

पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि ‘बहुला शक्तिपीठ’ वह जगह है, जहां पर देवी सती की बायीं भुजा गिरी थी। इस मंदिर के निर्माण और उत्थान को लेकर वैसे तो कोई जानकारी नहीं है, लेकिन यहां के स्थानीय लोग इसके निर्माण को लेकर अलग-अलग कहानियां रचते हैं।

हिन्दू धर्म के त्यौहारों में विशेषतौर पर ‘महाशिवरात्रि’ और ‘नवरात्र’ के समय यहां की रौनक देखते ही बनती है। इस दौरान यहां के बाज़ारों में मेले जैसा माहौल होता है। नवरात्रि में तो भक्तजन नौ दिन बिना कुछ खाए यहां के मंदिर में माँ के दर्शन के लिए चक्कर लगाते हैं।

भक्तजन देश के किसी भी कोने से वर्धमान रेलवे स्टेशन के लिए ट्रेन पकड़कर बहुला मंदिर पहुंच सकते हैं। यदि कोई पश्चिम बंगाल का रहने वाला है तो बस के माध्यम से बहुला पहुंच सकते हैं। राज्य में बहुला के लिए डीलक्स बसें चलाई जाती है। यहाँ का नजदीकी हवाईअड्डा वर्धमान है, जबकि यहां का अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा कोलकाता में है।

उज्जयिनी शक्तिपीठ:

यह शक्तिपीठ तीन स्थानों पर बताया जाता है पहला तो मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में रुद्रतालाब के पास हरसिद्धि मंदिर को शक्तिपीठ माना जाता है और दूसरा पश्चिम बंगाल में वर्धमान जिले से 16 किमी गुस्कुर स्टेशन से उज्जयिनी नामक स्थान पर इस शक्तिपीठ के होने की बात कही जाती है वही कुछ उज्जैन के निकट शिप्रा नदी के तट पर स्थित भैरवपर्वत पर गड़गालिका।

तीसरा कुछ गुजरात के गिरनार पर्वत के सन्निकट भैरवपर्वत को वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं। उक्त में से किसी एक स्थान पर माता दायीं कलाई गिरी थी। इसकी शक्ति है मंगल चंद्रिका और भैरव को कपिलांबर कहते हैं।

महाकालेश्वर की नगरी उज्जैन स्थित हरसिद्धि मंदिर को मुख्‍य शक्तिपीठ माना जाता है यहां पर देवी की शक्ति को ‘मंगल चण्डिका’ तथा शिव ‘मांगल्य कपिलांबर’ है। कहते हैं कि यहां पर माता की कोहनी का निपात हुआ था। इस मान से तीन ही अलग अलग शक्तिपीठ माने जाएंगे।

त्रिपुर सुन्दरी शक्तिपीठ:

त्रिपुर सुन्दरी शक्तिपीठ हिन्दू धर्म में प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक है। उल्लेखनीय है कि महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा[3] नाम की अनेक देवियाँ हैं[4], जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देवी त्रिपुरसुंदरी ब्रह्मस्वरूपा हैं, भुवनेश्वरी विश्वमोहिनी हैं। वही परदेवता, महाविद्या, त्रिपुरसुंदरी, ललिताम्बा आदि अनेक नामों से स्मरण की जाती हैं। त्रिपुरसुंदरी का शक्ति-संप्रदाय में असाधारण महत्त्व है। इन्हीं के नाम पर सीमांत प्रदेश भारत के पूर्वोत्तर भाग में ‘त्रिपुरा राज्य’ नाम से स्थापित है। कुछ का यह कथन है कि त्रिपुरी भाषा के दो शब्द ‘तुर्ड’ तथा ‘प्रा’ पर इस राज्य का नाम पड़ा है, जिसका संयुक्त रूप से अर्थ होता है- ‘पानी के पास।’ 

दक्षिणी-त्रिपुरा उदयपुर शहर से तीन किलोमीटर दूर, राधा किशोर ग्राम में राज-राजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी का भव्य मंदिर स्थित है, जो उदयपुर शहर के दक्षिण-पश्चिम[5] में पड़ता है। यहाँ सती के दक्षिण ‘पाद'[6] का निपात हुआ था। यहाँ की शक्ति ‘त्रिपुर सुंदरी’ तथा शिव ‘त्रिपुरेश’ हैं। इस पीठ स्थान को ‘कूर्भपीठ’ भी कहते हैं। इस मंदिर का प्रांगण कूर्म[7] की तरह है तथा इस मंदिर में लाल-काली कास्टिक पत्थर की बनी माँ महाकाली की भी मूर्ति है। इसके अतिरिक्त आधा मीटर ऊँची एक छोटी मूर्ति भी है, जिसे माता कहते हैं। उनकी भी महिमा माँ काली की तरह है। कहते हैं कि त्रिपुरा-नरेश शिकार हेतु या युद्ध पर प्रस्थान करते समय इन्हें अपने साथ रखते थे।

चार ज़िलों- ‘धालाई’, ‘उत्तरी त्रिपुरा’, ‘दक्षिणी त्रिपुरा’ और ‘पश्चिमी त्रिपुरा’ वाला भारत का अति लघु प्रदेश त्रिपुरा बांग्लादेश से घिरा है। पूर्वोत्तर में एक सँकरी पट्टी है, जहाँ त्रिपुरा की सीमा असम तथा मिज़ोरम से मिलती है। इन चार ज़िलों के मुख्यालय हैं- धालाई का मुख्यालय ‘अम्बासा’, उत्तरी त्रिपुरा का मुख्यालय ‘कैलास शहर’, दक्षिणी त्रिपुरा का मुख्यालय ‘उदयपुर’ और पश्चिमी त्रिपुरा का मुख्यालय ‘अगरतला’, जो त्रिपुरा राज्य की राजधानी भी है। त्रिपुरा का क्षेत्रफल मात्र 10491 वर्ग किलोमीटर है। इसकी पुरानी राजधानी उदयपुर ही थी।

उदयपुर-सबरम पक्की सड़क के किनारे स्थापित इस शक्तिपीठ के मंदिर का क्षेत्रफल 24x24x75 फुट है। उदयपुर से माताबाड़ी के लिए बस, टैक्सी, ऑटोरिक्शा उपलब्ध हैं तथा मंदिर के निकट अनेक धर्मशालाएँ एवं रेस्ट हाउस भी बने हुए हैं। दक्षिणी त्रिपुरा की प्राचीन राजधानी उदयपुर शहर से 3 किलोमीटर दूर त्रिपुर सुंदरी मंदिर है। वहाँ जाने के लिए अगरतला तक वायुयान से यात्रा करनी होगी। वहाँ से सड़क मार्ग ही मुख्य यातायात साधन है। यहाँ रेलमार्ग मात्र 64 किलोमीटर तक उपलब्ध है। कोलकाता से लामडिंग, वहाँ से सिलचर जाकर वायुमार्ग से यात्रा करना सुविधाजनक है। यद्यपि सड़क मार्ग भी उपलब्ध है, पर अधिक सुविधाजनक नहीं है।

चट्टल शक्तिपीठ:

चट्टल शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। बांग्लादेश में चिट्टागौंग (चटगांव) जिला से 38 किलोमीटर दूर सीताकुंड स्टेशन के निकट समुद्रतल से 350 मीटर की ऊंचाई पर चंद्रनाथ पर्वत शिखर पर छत्राल (चट्टल या चहल) में माता की दायीं भुजा गिरी थी। इसकी शक्ति भवानी है और भैरव को चंद्रशेखर कहते हैं। यहां चंद्रशेखर शिव का भी मंदिर है। यहीं पर पास में ही सीताकुण्ड, व्यासकुण्ड, सूर्यकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड, बाड़व कुण्ड, लवणाक्ष तीर्थ, सहस्त्रधारा, जनकोटि शिव भी हैं। बाडव कुण्ड से निरंतर आग निकलती रहती है।

देवी का यह पीठ बांग्लादेश में चटगाँव से 38 किलोमीटर दूर सीताकुण्ड स्टेशन के पास चंद्रशेखर पर्वत पर स्थित भवानी मंदिर है। समुद्रतल से 350 मीटर की ऊँचाई पर यहाँ चंद्रशेखर शिव का भी मंदिर है। यहाँ सती की “दाहिनी भुजा” का निपात हुआ था। यहाँ की शक्ति “भवानी” तथा शिव “चंद्रशेखर” हैं। बाडव कुण्ड से निरंतर आग निकलती रहती है। शिवरात्रि को यहाँ भारी मेला लगता है। निकटतम हवाई अड्डा शाह अमानत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है।

भ्रामरी शक्तिपीठ:

भारतीय राज्य पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी के बोडा मंडल के सालबाढ़ी ग्राम स्‍थित त्रिस्रोत स्थान पर माता का बायां पैर गिरा था। इसकी शक्ति है भ्रामरी और शिव को अंबर और भैरवेश्वर कहते हैं। भ्रामरी को मधुमक्खियों की देवी के रूप में जाना जाता है। देवी महात्म्य में उनका उल्लेख मिलता है। देवी भागवत पुराण में संपूर्ण ब्रह्मांड के जीवों के लिए उसकी महानता दिखाई गई और उनकी सर्वोच्च शक्तियों का वर्णन मिलता है।

मां भगवती जिस मंदिर में विराजती है। उसके सामने दो तने वाले एक सरवाला वटवृक्ष दो तनों के सहारे खड़ा है। बॉए पांव सामने और दाहिने पैर पीछे की ओर किए मानो जैसे कोई मनुष्य चलमान मुद्रा में हो। कोई वास्तुशिल्प नहीं है। प्रकृति ही इस मंदिर की वास्तुशिल्प है।

यह मंदिर सिलीगुड़ी से लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां जलपाईगुड़ी के रंगधामाली होकर पहुंचा जा सकता है। उत्तर बंगाल परिवहन निगम की बस दिन में चार बार जलपाईगुड़ी से शांतिपाड़ा बस स्टैंड से बोदागंज को जाती है। बोदागंज से 300 मीटर की दूरी पर मंदिर है। निजी वाहन से भी मंदिर पहुंचा जा सकता है। सिलीगुड़ी और एनजेपी से जाने वाले बेलाकोबा -मन्थनी हाट पांचीराम से रंगधामाली होकर बोदागंज मंदिर पहुंच सकते है।