(File Photo)
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    नई दिल्ली: हिंदू धर्म में कई ऐसे महत्वपूर्ण मंदिर है जो आस्था का प्रतीक है, जहां दर्शन करने के लिए न केवल अपने ही देश के लोग बल्कि विदेशों से भी लोग यहां आते है। देश में हर साल आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को पुरी के जगन्नाथ मंदिर में रथयात्रा निकलती है, जो हमारे देश का एक भव्य धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन होता है। आइए आज भगवान जगन्नाथ से जुड़ी कुछ रोचक बातों के बारे में आपको बताते है… 

    9 दिवसीय रथयात्रा

    हर साल होने वाला यह रथयात्रा उत्सव 9 दिनों तक चलता है। बता दें कि रथयात्रा के पहले दिन भगवान के रथ को 5 किमी तक खींचा जाता है और यह रथ गुंडीचा मंदिर तक पहुंचाया जाता है, जो भगवान कृष्ण की मौसी का मंदिर है। वहीं जगन्नाथ भगवान 8 दिन तक मौसी के यहां रहते हैं और 9वें दिन यानी देवशयनी एकादशी से एक दिन पहले आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को भगवान जगन्नाथ मंदिर में वापस आ जाते हैं। 

    विदेशों से भी आते है लोग 

    इस रथयात्रा को देखने के लिए न केवल देश से बल्कि विदेशों से भी भक्तजन आते थे लेकिन कोविड-19 के नियमों के तहत कुछ ही लोगों को इस बार रथयात्रा में मंजूरी मिली है। ऐसे में कई लोगों के मन में सवाल आता है कि भला जहां भगवानों को छप्पन भोग लगाया जाता है वही भगवान जगन्नाथ को खिचड़ी का भोग ही क्यों लगता है? आखिर इसके पीछे क्या कारण है? आइए जानते है इसके पीछे की वजह..

    ये है खिचड़ी का भोग लगाने के पीछे की वजह… 

    श्री जगन्नाथ मंदिर में प्रात:काल भगवान श्री जगन्नाथजी को खिचड़ी का बालभोग लगाया जाता है। इसके पीछे पौराणिक कथा यह  है कि प्राचीन समय में भगवान की एक परम भक्त थी कर्माबाई जो कि जगन्नाथ पुरी में रहती थीं और भगवान से अपने पुत्र की तरह स्नेह करती थी। कर्मा बाई एक पुत्र के रूप में ठाकुरजी के बाल रूप की उपासना करती थीं। एक दिन कर्मा बाई की इच्छा हुई कि ठाकुरजी को फल-मेवे की जगह अपने हाथों से कुछ बना कर खिलाऊं। 

    उन्होंने प्रभु को अपनी इच्छा के बारे में बताया। भगवान तो भक्तों के लिए सर्वथा सरल रहते हैं। तो प्रभु जी बोले, ‘मां, जो भी बनाया हो, वही खिला दो। बहुत भूख लग रही है’। कर्मा बाई ने खिचड़ी बनाई थी और ठाकुर जी को बड़े चाव से खिचड़ी खाने को दे दी। प्रभु बड़े प्रेम से खिचड़ी खाने लगे और कर्मा बाई यह सोचकर भगवान को पंखा झलने लगीं कि कहीं गर्म खिचड़ी से मेरे प्रभु का कहीं मुंह न जल जाए। प्रभु बड़े चाव से खिचड़ी खा रहे थे और मां की तरह कर्मा उनका दुलार कर रही थी।

    भगवान ने कहा, मां मुझे तो खिचड़ी बहुत अच्छी लगी। मेरे लिए आप रोज खिचड़ी ही पकाया करें। तो मैं यहीं आकर रोज ऐसी ही खिचड़ी खाऊंगा। अब कर्मा रोज बिना स्नान के ही प्रातःकाल ठाकुरजी के लिए खिचड़ी बनाती थीं। कथानुसार ठाकुरजी स्वयं बालरूप में कर्माबाई की खिचड़ी खाने के लिए आते थे। लेकिन एक दिन कर्माबाई के यहां एक साधु मेहमान आया। 

    उसने जब देखा कि कर्माबाई बिना स्नान किए ही खिचड़ी बनाकर ठाकुरजी को भोग लगा देती हैं, तो उसने उन्हें ऐसा करने से मना किया और ठाकुरजी का भोग बनाने व अर्पित करने के कुछ विशेष नियम बता दिए। अगले दिन कर्माबाई ने इन नियमों के अनुसार ठाकुरजी के लिए खिचड़ी बनाई जिससे उन्हें देर हो गई और वे बहुत दु:खी हुईं कि आज मेरा ठाकुर भूखा है। ठाकुरजी जब उनकी खिचड़ी खाने आए तभी मंदिर में दोपहर के भोग का समय हो गया और ठाकुरजी जूठे मुंह ही मंदिर पहुंच गए। 

    वहां पुजारियों ने देखा कि ठाकुरजी के मुंह पर खिचड़ी लगी हुई है, तब पूछने पर ठाकुरजी ने सारी कथा उन्हें बताई। जब यह बात साधु को पता चली तो वह बहुत पछताया और उसने कर्माबाई से क्षमा-याचना करते हुए उसे पूर्व की तरह बिना स्नान किए ही ठाकुरजी के लिए खिचड़ी बनाकर ठाकुरजी को खिलाने को कहा। इसलिए आज भी पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रात:काल बालभोग में खिचड़ी का ही भोग लगाया जाता है। मान्यता है कि यह कर्माबाई की ही खिचड़ी है।