जानें क्या हैं इन शक्तिपीठों का महत्व, इस नाम से देवी मां की होती है पूजा

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हिंदू मान्यता के अनुसार, देवी भागवत पुराण में 108, कालिकापुराण में 26, शिवचरित्र में 51, दुर्गा शप्तसती और तंत्रचूड़ामणि में शक्ति पीठों की संख्या 52 बताई गई है। वहीं ऐसा भी माना जाता है कि जब सती अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ में अपने पति का अपमान सहन नहीं कर पाई तो उसी यज्ञ में कूदकर भस्म हो गई। तब शिवजी अपनी पत्नी सती का जला हुआ अंग लेकर विलाप करते हुए सभी ओर घूमते रहे। जहां-जहां माता के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ निर्मित हो गए। तो आइये आज हम आपको बताते हैं 51 शक्तिपीठों में 10 शक्तिपीठों के बारे में…

कामाख्या शक्तिपीठ:

कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से ८ किलोमीटर दूर कामाख्या में है। कामाख्या से भी १० किलोमीटर दूर नीलाचल पव॑त पर स्थित है। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है। यहाँ मान्यता है, कि जो भी बाहर से आये भक्तगण जीवन में तीन बार दर्शन कर लेते हैं उनके सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है।

सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं। इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था।

जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं।और यही वक्त होता है जब विश्व के सबसे प्राचीनतम तंत्र मठ(चीनाचारी)आगम मठ के विशिष्ट तांत्रिक अपनी साधना करने तिब्बत से यहाँ आते है इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं।

कामाख्या मंदिर के दर्शन का समय भक्तों के लिए सुबह 8:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक और फिर दोपहर 2:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक शुरू होता है। सामान्य प्रवेश नि: शुल्क है, लेकिन भक्त सुबह 5 बजे से कतार बनाना शुरू कर देते हैं, इसलिए यदि किसी के पास समय है तो इस विकल्प पर जा सकते हैं। आम तौर पर इसमें 3-4 घंटे लगते हैं। वीआईपी प्रवेश की एक टिकट लागत है, जिसे मंदिर में प्रवेश करने के लिए भुगतान करना पड़ता है, जो कि प्रति व्यक्ति रुपए 501 की लागत पर उपलब्ध है। इस टिकट से कोई भी सीधे मुख्य गर्भगृह में प्रवेश कर सकता है और 10 मिनट के भीतर पवित्र दर्शन कर सकता है।

प्रयाग शक्तिपीठ:

प्रयाग शक्तिपीठ उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (प्राचीन नाम ‘प्रयाग’) में स्थित है। इलाहाबाद में इस शक्तिपीठ के स्थानों को लेकर मतान्तर हैं। यहाँ तीन मंदिरों को शक्तिपीठ माना जाता है और तीनों ही मंदिर प्रयाग शक्तिपीठ की शक्ति ‘ललिता’ के हैं। प्रयाग में सती की हस्तांगुली का निपात हुआ था। माना जाता है कि माता की अंगुलियाँ ‘अक्षयवट’, ‘मीरापुर’ और ‘अलोपी’ स्थानों पर गिरी थीं।

इस शक्तिपीठ की शक्ति ‘ललिता’ तथा भैरव ‘भव’ हैं। अक्षयवट क़िले में ‘कल्याणी-ललिता देवी मंदिर’ के समीप ही ‘ललितेश्वर महादेव’ का भी मंदिर है। मत्स्यपुराण में वर्णित 108 शक्तिपीठों में यहाँ की देवी का नाम ‘ललिता’ दिया गया है। इलाहाबाद-कानपुर मार्ग पर इलाहाबाद से 54 किलोमीटर भी आगे बौद्धों का पावन तीर्थ तथा बौद्ध केंद्र-कौशांबी है।

प्रयागे ललिता देवी, “नैमिषे लिंगधारिणी
प्रयागे ललितादेवी कामाक्षी गंधमादने

युगाद्या शक्तिपीठ:

युगाद्या शक्तिपीठ बंगाल के पूर्वी रेलवे के वर्धमान जंक्शन से 39 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में तथा कटवा से 21 कि.मी दक्षिण-पश्चिम में महाकुमार-मंगलकोट थानांतर्गत ‘क्षीरग्राम’ में स्थित है- ‘युगाद्या शक्तिपीठ’। इस शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री देवी ‘युगाद्या’ तथा भैरव ‘क्षीर कण्टक’ हैं। तंत्र चूड़ामणि के अनुसार यहाँ माता सती के दाहिने चरण का अँगूठा गिरा था-

‘भूतधात्रीमहामाया भैरव: क्षीरकंटक:
युगाद्यायां महादेवी दक्षिणागुंष्ठ: पदो मम।’

यहाँ माता सती को “भूतधात्री” तथा भगवन शिव को “क्षीरकंटक” अर्थात “युगाध” कहा जाता है। इसे ‘क्षीरग्राम शक्तिपीठ’ भी कहा जाता है। इस मंदिर में एक यात्री निवास भी है तथा यहाँ वर्धमान से बस द्वारा भी पहुँचा जा सकता है। त्रेता युग में अहिरावण ने पाताल में जिस काली की उपासना की थी, वह युगाद्या ही थीं। कहा जाता है कि अहिरावण की कैद से छुड़ाकर राम-लक्ष्मण को पाताल से लेकर लौटते हुए हनुमान देवी को भी अपने साथ लाए तथा क्षीरग्राम में उन्हें स्थापित किया। क्षीरग्राम की भूतधात्री महामाया के साथ देवी युगाद्या की भद्रकाली मूर्ति एक हो गई और देवी का नाम ‘योगाद्या’ या ‘युगाद्या’ हो गया। बंगला के अनेक ग्रंथों के अलावा ‘गंधर्वतंत्र’, ‘साधक चूड़ामणि’, ‘शिवचरित’ तथा ‘कृत्तिवासी रामायण’ में इस देवी का वर्णन मिलता है।

कालीघाट शक्तिपीठ:

कालीघाट शक्तिपीठ कोलकाता का एक क्षेत्र है, जो अपने काली माता के मंदिर के लिये प्रसिद्ध है। इस शक्तिपीठ में स्थित प्रतिमा की प्रतिष्ठा कामदेव ब्रह्मचारी (सन्यासपूर्व नाम जिया गंगोपाध्याय) ने की थी। सती के शरीर के अंग प्रत्यंग जहाँ भी गिरे वहाँ शक्तिपीठ बन गये। ब्रह्म रंध्र गिरने से हिंगलाज,शीश गिरने से शाकम्भरी देवी,विंध्यवासिनी,पुर्णगिरी,ज्वालामुखी,महाकाली आदि शक्तिपीठ बन गये।

माँ सती के दाये पैर की कुछ अंगुलिया इसी जगह गिरी थी। आज यह जगह काली भक्तो के लिए सबसे बड़ा मंदिर है। माँ की प्रतिमा में जिव्हा सोने की है जो की बाहर तक निकली हुई है काली मंदिर में देवी काली के प्रचंड रूप की प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा में देवी काली भगवान शिव की छाती पर पैर रखी हुई है। उनके गले में नरमुंडो की माला है उनके हाथ में कुल्हाड़ी और कुछ नरमुंड है उनकी कमर में भी कुछ नरमुंड बंधे हुए है उनकी जीब निकली हुई है और उनकी जीब में से कुछ रक्त की बूंदे भी टपक रही है।

कुछ अनुश्रुतियों के अनुसार इस मूर्ति के पीछे कुछ अनुश्रुतिया भी प्रचलित है। एक के अनुसार देवी किसी बात पर गुस्सा हो गयी थी उसके बाद उन्होंने नरसंघार करना शुरू कर दिया। उनके मार्ग में जो भी आता वो मारा जाता उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्ते में लेट गए। देवी ने गुस्से में उनकी छाती पर भी पैर रख दिया उसी समय उन्होंने भगवान शिव को पहचान लिया और उन्होंने फिर नरसंघार बंद कर दिया।

किरीट शक्तिपीठ:

किरीट शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है।

पश्चिम बंगाल में हावड़ा स्टेशन से 2.5 किलोमीटर आगे लालबाग़ कोट स्टेशन है, जो हावड़ा-वरहर लाइन पर है, जहाँ से 5 किलोमीटर दूर है-बड़नगर। वहीं हुगली (गंगा) तट पर स्थित है-किरीट शक्तिपीठ। इस स्थान पर सती के “किरीट (शिरोभूषण या मुकुट)” का निपात हुआ था। कुछ विद्वान् मुकुट का निपात कानपुर के मुक्तेश्वरी मंदिर में मानते हैं। यहाँ की सती ‘विमला’ अथवा ‘भुवनेश्वरी’ हैं तथा शिव हैं ‘संवर्त’। यह स्थान कोलकाता महानगर में ही है।

विशालाक्षी शक्तिपीठ:

विशालाक्षी शक्तिपीठ हिन्दू धर्म के प्रसिद्द 51 शक्तिपीठों में एक है। यहां देवी सती के मणिकर्णिका गिरने पर इस शक्तिपीठ की स्थापना हुई। यह मंदिर उत्तर प्रदेश के वाराणसी नगर में काशी विश्वनाथ मंदिर से कुछ दूरी पर पतित पावनी गंगा के तट पर स्थित मीरघाट( मणिकर्णिका घाट) पर है। वाराणसी का प्राचीन नाम काशी है। काशी प्राचीन भारत की सांस्कृतिक एवम पुरातत्व की धरोहर है।काशी या वाराणसी हिंदुओं की सात पवित्र पुरियों में से एक है। देवी पुराण में काशी के विशालाक्षी मंदिर का उल्लेख मिलता है।

पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये।इन शक्तिपीठों मे पुर्णागिरि, कामाख्या असम,महाकाली कलकत्ता,ज्वालामुखी कांगड़ा,शाकम्भरी सहारनपुर, हिंगलाज कराची आदि प्रमुख है ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं। कहा यह भी जाता है कि जब भगवान शिव वियोगी होकर सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर रखकर इधर-उधर घूम रहे थे, तब भगवती के दाहिने कान की मणि इसी स्थान पर गिरी थी। इसलिए इस जगह को ‘मणिकर्णिका घाट’ भी कहते हैं। कहा यह भी जाता है कि जब भगवान शिव वियोगी होकर सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर रखकर इधर-उधर घूम रहे थे, तब भगवती का कर्ण कुण्डल इसी स्थान पर गिरा था।

देवी के सिद्ध स्थानों में काशी में मात्र विशालाक्षी का वर्णन मिलता है तथा एक मात्र विशालाक्षी पीठ का उल्लेख काशी में किया गया है। दक्षिण भारतीय शैली में स्थापत्य माँ विशालाक्षी की मूर्ति स्वयं ही देदिप्तमान आभा प्रसारित करती हैं। बहुत कम यात्रियों का यहाँ तक पहुँचना हो पाता है,जरूरत है मंदिर के बारे में प्रचार प्रसार की ।

अविमुक्ते विशालाक्षी महाभागा महालये।
तथा
वारणस्यां विशालाक्षी गौरीमुख निवासिनी।

कन्याश्रम शक्तिपीठ:

कन्याश्रम में माता का पीठ गिरी थी। कुछ विद्वान को मानना है कि यहाँ माँ का उध्र्वदन्त गिरा था। इस शक्तिपीठ को सर्वाणी के नाम से जाना जाता है। इसकी शक्ति है सर्वाणी और भैरव को निमिष कहते हैं। कन्याश्रम को कालिकशराम या कन्याकुमारी शक्ति पीठ के रूप में भी जाना जाता है। यह शक्तिपीठ चारो ओर से जल से घिरी हुई है। यहाँ का दृश्य भी बहुत खूबसूरत है। ये एक छोटा सा टापू है, जहाँ ये शक्तिपीठ स्थापित है। मंदिर की ऊपरी गुम्बद लाल पत्थरों की मदद से बनाया गया है।

तीन सागरों के संगम-स्थल पर स्थित कन्याकुमारी के मंदिर में ही भद्रकाली का मंदिर है। यह कुमारी देवी की सखी हैं। यह मंदिर ही शक्तिपीठ है, जहाँ देवी के देह का पृष्ठभाग का पतन हुआ था। यहाँ की शाक्ति शर्वाणि या नारायणी तथा भैरव निमिष या स्थाणु हैं। कन्याकुमारी एक अंतरीप तथा भारत की अंतिम दक्षिणी सीमा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ स्नानार्थी समस्त पापों से मुक्त हो जाता है-

ततस्तीरे समुद्रस्थ कन्यातीर्थमुपस्पृशेत्। 
तत्रो पस्पृश्य राजेंद्र सर्व पापैः प्रमुच्यते॥

देवी मंदिर के दक्षिण में मातृतीर्थ, पितृतीर्थ, भीमतीर्थ है। पश्चिम में थोड़ी दूर पर ही स्थाणु तीर्थ है। कन्यकाश्रम मंदिर समुद्रतट पर है। वहाँ स्नान घाट है,जहाँ गणेश जी का मंदिर है। मान्यता है कि स्नान के बाद गणेश जी का दर्शन करके तब कन्याकुमारी की भावोत्पादक एवं भव्य विग्रह के दर्शन होते हैं। मंदिर में अनेक देव विग्रह हैं। मंदिर से थोड़ी दूर पर पुष्करणी है। समुद्र तट पर एक विचित्र बावली है, जिसका जल मीठा है। इसे माण्डूक तीर्थ कहते हैं। यात्री इसमें भी स्नान करते हैं। समुद्र में थोड़ी दूर आगे विवेकानंद शिला है, जहाँ स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा है। कहते हैं स्वामी जी यहीं बैठकर चिंतन-मनन करते थे। कन्याकुमारी रेल तथा सड़क मार्ग से जुड़ा है। यह त्रिवेंद्रम से 80 किलोमीटर दूर है। यहाँ चेन्नई तथा त्रिवेंद्रम से रेल या बस से भी पहुँचा जा सकता है।

देवीकूप शक्तिपीठ:

यह शक्तिपीठ हरियाणा के कुरुक्षेत्र जंक्शन तथा थानेश्वर रेलवे स्टेशन के दोनों ओर से 4 किलोमीटर दूर झाँसी मार्ग पर, ‘द्वैपायन सरोवर’ के पास स्थित है। कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ, जिसे ‘श्रीदेवीकूप’ कहा जाता है, ‘भद्रकाली पीठ’ के नाम से मान्य है।

यहाँ सती के दाएँ चरण (गुल्फ) का निपात हुआ था। यहाँ की शक्ति ‘सावित्री’ तथा भैरव ‘स्थाणु’ हैं। इस स्थान का माहात्म्य तंत्र चूड़ामणि में भी मिलता है। कहते हैं कि यहाँ पर पाण्डवों ने महाभारत युद्ध से पूर्व विजय की कामना से माँ काली की उपासना की थी और विजय के पश्चात् स्वर्ण का अश्व चढ़ाया था। आज भी यह प्रथा है कि भक्त यहाँ पर स्वर्ण का तो नहीं, किंतु काठ का घोड़ा चढ़ाते हैं। किम्वदंती है कि कृष्ण तथा बलराम का यहीं पर ‘मुण्डन संस्कार’ भी संपन्न हुआ था।

इस पीठ में भद्रकाली की विलक्षण प्रतिमा है। गणों के रूप में दक्षिणमुखी हनुमान, गणेश तथा भैरव विद्यमान हैं। यहीं स्थाणु शिव का अद्भुत शिवलिंग भी है, जिसमें प्राकृतिक रूप से ललाट, तिलक एवं सर्प अंकित हैं। मान्यता है कि पहले स्थाणु शिव का दर्शन करके तब भद्रकाली का दर्शन करना चाहिए।

मंदिर के दक्षिण तरफ ‘द्वैपायन सरोवर’ तथा उत्तरी-पश्चिमी किनारे पर ‘सूर्य यंत्र’ तथा ‘दक्षेश्वर महादेव का मंदिर’ भी है। नवरात्रों में तथा प्रत्येक शनिवार को यहाँ अपार भक्त समूह पूजा हेतु आता है। यात्रियों के ठहरने के लिए मंदिर परिसर में ही धर्म कक्ष भी मौजूद है। दिल्ली-अमृतसर रेलमार्ग पर कुरुक्षेत्र स्टेशन दिल्ली से 55 किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से मंदिर दिल्ली-अम्बाला मार्ग (जी.टी.रोड) प्रियली बस अड्डे से 9 किलोमीटर दूर है।

गायत्री शक्तिपीठ:

शांतिकुंज हरिद्वार जाने वाले लोगों के लिए नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था हो, इसके लिए यहां एक समिति के माध्यम से क्विंटलों गेहूं गांवों से एकत्रित किया जाकर ट्रकों से पहुंचाया जाता है। गायत्री चेतना केंद्र मनोहरपुर शाहपुरा के तत्वावधान में रविवार शाम को शांति कुंज हरिद्वार के लिए 1५० क्विंटल गेहूं का ट्रक रवाना किया। ट्रक को हरी झंडी एएसपी रामकुमार कस्बा, डीएसपी सुरेन्द्र कृष्णीया, थाना प्रभारी रामस्वरूप बैरवा ने दिखाई ।

एएसपी कस्बा ने उपस्थित लोगों को कहा कि गायत्री चेतना केंद्र का यह कार्य बहुत ही परोपकार और मानव कल्याण की सोच है। इससे शोद्यार्थी, विद्यार्थी एवं जरूरतमंद लोगों को भोजन उपलब्ध हो सकेगा। शांतिकुंज हरिद्वार के बल्लू राम कुम्हार ने बताया कि इस वर्ष यह 5वां ट्रक रवाना किया गया है।

मनोहरपुर शाहपुरा, आसपास के गांवों मनोहरपुर, सुराणा, छारसा, खोरा, नवलपुरा, बिशनगढ़ सहित कई क्षेत्रों से एकत्र कर शांति कुंज हरिद्वार के भगवती भोजनालय को भिजवाया गया हैं। इससे यहां आने वाले लोगों को नि:शुल्क भोजन कराते हैं। इस मौके पर डॉ. महेश यादव, प्रधानाचार्य रामचन्द्र बुनकर, सुरज्ञान धोबी, रामावतार हलकारा, कैलाश ज्योतिषी, रामकुमार यादव आदि मौजूद रहे।

श्री शैल शक्तिपीठ:

श्री शैल शक्तिपीठ हिन्दूओं के एक लिए पवित्र स्थान है जो कि भारत के राज्य, आंध्रप्रदेश के, हैदराबाद शहर से 250 किलोमीटर की दूरी पर कुर्नूल के पास स्थित है। यह मंदिर को ‘दक्षिण का कैलास’ और ‘ब्रह्मगिरि’ भी कहा जाता है। श्री शैल शक्ति पीठ के साथ भगवान शिव का मल्लिकार्जुन ज्योतिलिंग भी स्थित है। इस मंदिर से लगभग 7 किलोमीटर की दूरी पर भ्रमराम्बा देवी का मंदिर भी स्थित है जिसे शक्ति पीठ के रूप में माना जाता है।

यह मंदिर माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है। इस मंदिर में शक्ति को ‘महालक्ष्मी’ के रूप पूजा जाता है और भैरव को ‘संवरानन्द’ और ‘ईश्वरनन्द’ के रूप में पूजा जाता है। पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में फैले हुए हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी सती ने उनके पिता दक्षेस्वर द्वारा किये यज्ञ कुण्ड में अपने प्राण त्याग दिये थे, तब भगवान शंकर देवी सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रह्माण चक्कर लगा रहे थे इसी दौरान भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया था, जिसमें से सती का ‘ग्रीवा का हिस्सा’ इस स्थान पर गिरा था।

श्री शैल शक्ति पीठ में सभी त्यौहार मनाये जाते है विशेष कर दुर्गा पूजा और नवरात्र के त्यौहार पर विशेष पूजा का आयोजन किया जाता है। इन त्यौहारों के दौरान, कुछ लोग भगवान की पूजा के प्रति सम्मान और समर्पण के रूप में व्रत (भोजन नहीं खाते) रखते हैं। त्यौहार के दिनों में मंदिर को फूलो व लाईट से सजाया जाता है। मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण श्रद्धालुओं के दिल और दिमाग को शांति प्रदान करता है।