भगवान जगन्नाथ की मूर्तियां क्यों रह गईं अधूरी, मूर्ति में है श्रीकृष्ण का हृदय, जानें पौराणिक रहस्य

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    -सीमा कुमारी

    हिन्दू धर्म में भगवान जगन्नाथ की विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा विशेष महत्व रखता है। यह रथयात्रा हर साल आषाढ़ महीने के शुक्लपक्ष की द्वितीया से शुरू होती है। जो इस साल 12 जुलाई को है। ‘पद्मपुराण’ (Padma Purana) के अनुसार, आषाढ़ महीने के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि सभी कार्यों को करने के लिए सिद्धि प्रदान करने वाली मानी जाती है। चार पवित्र धामों में से एक ‘श्रीजगन्नाथ धाम’ में भगवान विष्णु जगन्नाथ रूप में विराजते हैं। मान्यता है कि यहां बाकी के तीनों धाम जाने के बाद अंत में यहां आना चाहिए। उड़ीसा राज्य में स्थित पुरी में श्रीजगन्नाथ मंदिर वैष्णव सम्प्रदाय का एक प्रसिद्द हिन्दू मंदिर है, जो जग के स्वामी भगवान श्री कृष्ण को समर्पित है। जगन्नाथ पुरी को धरती का वैकुंठ कहा गया है। इस स्थान को  ‘शाकक्षेत्र’, ‘नीलांचल’ और ‘नीलगिरि’ भी कहते हैं।

    पुराणों के अनुसार, जगन्नाथ पुरी में भगवान कृष्ण ने अनेकों लीलाएं की थीं और ‘नीलमाधव’ के रूप में यहां अवतरित हुए। सभी मंदिरों और पवित्र स्थानों से जुड़ी कई कहानियां होती हैं। यही प्रचलित गाथाएं आगे चलकर भक्तों को उन स्थानों तक लाने के लिए प्रभावित करती हैं।   ऐसा ही एक स्थान है ‘पुरी का जगन्नाथ मंदिर’. इस प्रसिद्ध मंदिर से जुड़ी भी एक कथा बहुत प्रचलित है। क्या है वो पूरी कहानी जानें-

    ‘जगत के नाथ’ यहां अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं। तीनों ही देव प्रतिमाएं काष्ठ (लकड़ी) की बनी हुई हैं। हर बारह वर्ष बाद इन मूर्तियों को बदले जाने का विधान है। पवित्र वृक्ष की लकड़ियों से पुनः मूर्तियों की प्रतिकृति बना कर फिर से उन्हें एक बड़े आयोजन के साथ प्रतिष्ठित किया जाता है। वेदों के अनुसार भगवान हलधर ऋग्वेद स्वरूप, श्री हरि (नारायण) सामदेव स्वरूप, सुभद्रा देवी यजुर्वेद की मूर्ति हैं और सुदर्शन चक्र अथर्ववेद का स्वरूप माना गया है। श्री जगन्नाथ का मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है इसके शिखर पर अष्टधातु से निर्मित विष्णु जी का सुदर्शन चक्र लगा हुआ है, जिसे ‘नीलचक्र’ भी कहते हैं। यहां चारों प्रवेश द्वारों पर हनुमान जी विराजमान हैं, जो कि श्री जगन्नाथ जी के मंदिर की सदैव रक्षा करते हैं।

    इसलिए हैं यहां भगवान की मूर्तियां अधूरी

    शास्त्रों के अनुसार, दुनिया के सबसे बड़े वास्तुशिल्पी भगवान विश्वकर्मा (बूढ़े बढ़ई के रूप में) जब मूर्ति बना रहे थे, तब उन्होंने यहां के राजा इंद्रद्युम्न के सामने शर्त रखी कि वे दरवाज़ा बंद करके मूर्ति बनाएंगे और जब तक मूर्तियां नहीं बन जातीं, तब तक अंदर कोई प्रवेश नहीं करेगा। यदि दरवाजा किसी भी कारण से पहले खुल गया तो वे मूर्ति बनाना छोड़ देंगे। बंद दरवाजे के अंदर मूर्ति निर्माण का काम हो रहा है या नहीं, यह जानने के लिए राजा नित्य-प्रति दरवाजे के बाहर खड़े होकर मूर्ति बनने की आवाज सुनते थे। एक दिन राजा को अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दी। उनको लगा कि विश्वकर्मा काम छोड़कर चले गए हैं। राजा ने दरवाज़ा खोल दिया और शर्त के अनुसार विश्वकर्मा वहां से अंतर्ध्यान हो गए। भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां अधूरी ही रह गईं। उसी दिन से आज तक मूर्तियां इसी रूप में यहां विराजमान हैं। और आज भी भगवान की पूजा इसी रूप होती है।

    श्रीकृष्ण का हृदय है यहां

    पौराणिक मान्यता के अनुसार, जब भगवान श्रीकृष्ण की लीला अवधि पूर्ण हुई, तो वे देह त्यागकर वैकुंठ चले गए। उनके पार्थिव शरीर का पांडवों ने दाह-संस्कार किया। लेकिन इस दौरान उनका दिल जलता ही रहा। पांडवों ने उनके जलते हुए दिल को जल में प्रवाहित कर दिया, तब यह दिल लट्ठे के रूप में परिवर्तित हो गया। यह लट्ठा राजा इंद्रदयुम्न को मिल गया और उन्होंने भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के अंदर इसे स्थापित कर दिया,तब से वह यहीं है। हालांकि बारह वर्ष बाद मूर्ति बदली जाती है पर लट्ठा अपरिवर्तित रहता है। आश्चर्य की बात तो यह है, कि मंदिर के पुजारियों ने भी इसे कभी नहीं देखा है। लट्ठा परिवर्तन के समय पुजारी की आँखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथ कपड़े से ढके हुए होते हैं। बगैर देखे और बिना स्पर्श किए इस लट्ठे को पुरानी मूर्ति में से निकल कर नई मूर्ति में स्थापित कर दिया जाता है। उनके एहसास के मुताबिक यह लट्ठा बहुत कोमल है। मान्यता है कि कोई यदि इसको देख लेगा तो उसके प्राणों को खतरा हो सकता है।