आघाड़ी को एडवांटेज, पर बीजेपी भी पीछे नहीं, कांग्रेस और शिवसेना को करना होगा मंथन

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    महाराष्ट्र की 106 नगर पंचायतों के परिणामों को देखने के बाद एक बात तो स्पष्ट है कि राज्य में जिसकी सत्ता रहती है, उसका स्थानीय निकाय पर कब्जा होना कोई नई बात नहीं है. जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला फार्मूला सर्वदलीय सत्ता के समय लागू रहता है. मजा तो तब है जब आपकी पार्टी विपक्ष में हो और आप पंचायतों पर परचम लहराएं.

    बहरहाल जो परिणाम आए हैं, उससे निश्चित ही आघाड़ी के नेताओं के लिए राहत की बात है, मात्र बीजेपी को भी कम नहीं आंकना चाहिए. दलगत गणना की जाए तो बीजेपी दूसरे नंबर पर रही है. वैसे पूरे परिणाम को बारीकी से देखें तो पंचायत पर कब्जे के लिहाज से राकां और बीजेपी ने समान प्रदर्शन किया है, जबकि शिवसेना और कांग्रेस को मंथन जरूर करना चाहिए.  

    मजबूत होगी आघाडी, नेताओं में बढ़ेगा कलह

    इन परिणामों से एक बात तो निश्चित है कि महाविकास आघाड़ी की दोस्ती और मजबूत होगी. आघाड़ी में शामिल नेताओं को भी जनता ने स्पष्ट संकेत दिया है कि भले ही यह चुनाव इन तीनों दलों ने अलग-अलग लड़ा था, उसके बाद भी उसका भरोसा आघाड़ी के तीनों दलों को मिलाकर ही है. आघाड़ी को कमजोर करने में जुटे तीनों पार्टियों के कुछ नेताओं के लिए भी यह झटका ही है. मसलन तीनों दलों में आज भी कोई यह विचार नहीं कर सकता कि वह अकेले के दम पर राज्य में कोई काम कर सकता है, सरकार बनाना तो बहुत दूर की बात है.

    परिणाम बताते हैं कि कांग्रेस ने अपने गढ़ विदर्भ में अपनी ताकत बढ़ाई है तो राकां ने पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में अपने किलों की घेराबंदी तगड़ी कर रखी है. पूर्व उपमुख्यमंत्री आरआर पाटिल के 23 वर्षीय पुत्र रोहित पाटिल ने पिता की तर्ज पर आगे बढ़ते हुए विरोधियों को ध्वस्त कर दिया है. राकां की राजनीति का यही पैटर्न है. वह नेता के साथ-साथ उसका क्षेत्र भी निर्धारित कर देते हैं, जैसे पवार का बारामती. कांग्रेस और शिवसेना में ऐसे कई नेता हैं जो कहने को असंतुष्ट हैं और उस मौके की तलाश में हैं जब आघाड़ी से हट जाएं. ऐसे नेताओं के लिए भी यह परिणाम रेड सिग्नल की तरह हैं.

    राज्य में तीनों पार्टियों को अपने-अपने क्षेत्र में फोकस करने की जरूरत है. कांग्रेस और राकां ने तो अपना गढ़ मजबूत किया है, लेकिन शिवसेना को इस बारे में नई रणनीति पर काम करना होगा. सिर्फ मुंबई और ठाणे के भरोसे रहकर राज्य की राजनीति नहीं चलाई जा सकती, इतना तो अब उद्धव ठाकरे भी समझ गए होंगे. जब तक शिवसेना बीजेपी के साथ थी, तब तक उसका महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में बड़ा जनाधार था.

    उस समय भी शिवसेना का यह जनाधार बढ़ाने में बीजेपी की भूमिका महत्वपूर्ण थी. अब शिवसेना और बीजेपी अलग हो गए हैं. शिवसेना को ग्रामीण जनाधार बनाए रखने और बढ़ाने में कई धुरंधर नेताओं की जरूरत पड़ेगी. मुख्यमंत्री रहते हुए शिवसेना के लिए यह मुश्किल भी नहीं है. आघाड़ी का दूसरा सिरदर्द यह बढ़ने वाला है कि इसमें शामिल नेताओं में इन परिणामों के बाद कलह बढ़ सकती है, जैसे जलगांव में गुलाबराव पाटिल ने एकनाथ खड़से की लुटिया डुबो दी.

    खड़से के ग्रह पहले ही ठीक नहीं चल रहे हैं. ऐसे में नगर पंचायत से उनका निष्कासन उनके साथ-साथ वहां राकां को भी कमजोर करेगा. पवार और अजीत ऐसे किसी भी नेता को घास नहीं डालते जो जमीन पर कमजोर हो. दूसरी ओर कोंकण में शिवसेना नेताओं के बीच जो कलह बढ़ी है, वह भी भविष्य में बड़ा सिरदर्द साबित होगी. अनिल परब और रामदास कदम के बीच की लड़ाई अब और बढ़ने वाली है. विधायक योगेश कदम ने जो आरोप लगाए हैं, उसके बाद शिवसेना को कोंकण में नये नेताओं की तलाश करना जरूरी हो गया है.

    उसे पता है बीजेपी ने नारायण राणे को केन्द्र में मंत्री बनाकर दुधारी तलवार के रूप में उसके सामने खड़ा कर दिया है. राणे कोंकण में तो नुकसान पहुंचाएंगे ही, साथ ही बीएमसी में भी शिवसेना को सत्ता से बाहर करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे. लेकिन राणे के लिए बहुत सुकून की बात तो है नहीं. उनके पुत्र नितेश राणे के निर्वाचन क्षेत्र में ही बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है. जनता जानती है कि उसे कब किसको लगाम लगानी है.    

    बीजेपी के पास वन मैन आर्मी…!

    बीजेपी ने नगर पंचायत के परिणाम आने के बाद जोर-शोर से यह दावा किया कि उसकी सीटें बढ़ी हैं और राज्य में उसके अपने बलबूते 24 पंचायतों पर कब्जा हुआ है. साथी दलों के साथ कुल मिलाकर उसके पास 30 पंचायतें हैं. अब यह खुश होने की बात है या दुखी होने की, यह तो बीजेपी के नेता ही अच्छे से बता सकेंगे. पार्टी जानती है कि आघाड़ी के तीनों दलों ने यह चुनाव अलग-अलग लड़ा था. उसके बाद भी जब आघाड़ी को 80 से ज्यादा पंचायतों में सफलता मिली है तो बीजेपी का टेंशन बढ़ना वाजिब है.

    आंकड़ों की बाजीगरी के भरोसे अपने आपको नंबर-वन बताना यह अपनी गलतियों पर परदा डालने जैसा है. विदर्भ में कांग्रेस की वापसी का मतलब साफ है कि बीजेपी कमजोर हुई है. चंद्रपुर जिले के सावली नगर पंचायत का ही उदाहरण देख लिया जाए तो ही समझ में आ जाता है कि जहां पार्टी का दशकों से कब्जा था, वहां कांग्रेस ने उसका सूपड़ा साफ कर दिया.

    सुधीर मुनगंटीवार जैसे वरिष्ठ नेता होने के बाद भी चंद्रपुर की 6 पंचायतों में से 1 पर बीजेपी का जीतना उसकी राज्यव्यापी सफलता का संकेत स्पष्ट करता है. पार्टी की समस्या यह है कि यहां देवेन्द्र फडणवीस पूरे राज्य में अकेले चेहरे के रूप में नजर आते हैं. प्रदेशाध्यक्ष चंद्रकांत पाटिल तो अक्सर मीडिया कैमरे के सामने बहुत ज्यादा सक्रिय दिखते हैं. प्रवीण दरेकर और प्रसाद लाड जैसे नेता अपनी उलझनों में ही ज्यादा परेशान हैं.

    गोपीचंद पडलकर और सदाभाऊ खोत जैसे नेताओं के हाथ में एसटी का आंदोलन देकर भी बीजेपी ने देख लिया कि आधी-अधूरी तैयारी से क्या हश्र होता है! पंचायत के परिणाम उसके पक्ष में कितने हैं, उसके नेता ही ज्यादा बेहतर जानते हैं. लेकिन अब पार्टी के सामने बड़ी चुनौती यह है कि उसके कैडर का मनोबल लगातार गिरता जा रहा है. पाटिल हों या फडणवीस, दोनों को यह तय करना होगा कि आघाड़ी की लड़ाई में जनहित के कौन से मुद्दों को आगे करके लड़ा जाए, वरना जो परिणाम पंचायतों में आए हैं, वही विधानसभा में भी आएंगे और ऐसा ही चलता रहा तो लोकसभा में भी!