आखिर कौन सी लड़ाई जीत पाया अमेरिका आज तक

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    अमेरिकी विदेश नीति ‘वार गेम’ पर टिकी है. वह चाहता है कि दुनिया के किसी न किसी हिस्से में युद्ध हो ताकि उसके हथियार और लड़ाकू विमान बिकें. जब कोई न लड़े तो अमेरिका खुद अपनी सीमा से बहुत दूर जाकर किसी तीसरे की लड़ाई में उलझ जाता है. इसके पीछे उसका इरादा दुनिया को एहसास कराना होता है कि वही एकमात्र सुपरपावर या महाशक्ति है लेकिन अब वह तिलिस्म टूट रहा है. अमेरिका ने 1945 के बाद से 5 प्रमुख युद्ध लड़े लेकिन कहीं भी निर्णायक जीत हासिल नहीं कर पाया. सारे संसाधन दांव पर लगाने के बाद भी उसे मुंह छिपाकर वापस लौटना पड़ता है. अफगानिस्तान से 20 वर्ष बाद अमेरिकी सैनिक वापस लौट गए. यह अमेरिकी विफलता की ताजी मिसाल है.

    1945 में अमेरिका द्वितीय विश्वयुद्ध में इसलिए कूदा था क्योंकि पर्ल हार्बर में उसके युद्धपोतों को जापानियों ने नष्ट कर दिया था. इसके जवाब में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रुमेन के आदेश पर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर एटम बम गिराए गए थे और इसके बाद विश्वयुद्ध समाप्त हो गया था. इसके बाद अमेरिका ने कोरिया, वियतनाम, खाड़ी युद्ध, इराक व अफगानिस्तान में युद्ध किया. इसके अलावा सोमालिया, यमन और लीबिया में भी छोटी लड़ाइयां लड़ीं. 1991 के खाड़ी युद्ध (गल्फ वार) को छोड़ दिया जाए तो अमेरिका ने हर जंग में मात खाई. 1950 के कोरिया युद्ध में उत्तर कोरिया को अमेरिका परास्त नहीं कर पाया. वियतनाम युद्ध में हजारों अमेरिकी सैनिक मारे गए लेकिन सफलता नहीं मिली. इराक के तेल भंडार पर अमेरिका की नजर थी, इसलिए वहां के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन पर घातक रासायनिक हथियार रखने का बेबुनियाद आरोप लगाकर वहां हमला किया गया. ईरान कभी भी अमेरिकी धमकी के आगे नहीं झुका.

    युद्ध क्यों हार जाता है

    सबसे उन्नत हथियार और आधुनिक टेक्नोलॉजी होने के बावजूद अमेरिका युद्ध इसलिए हार जाता है क्योंकि उसके सैनिकों में मनोबल की कमी है. हर अमेरिकी सैनिक पर अमेरिका मोटी रकम खर्च करता है परंतु सुख-सुविधा में पले ये सैनिक आमने-सामने की लड़ाई में दूसरी फौजों के सामने टिक नहीं पाते. जितना अनुभव व जज्बा एशियाई देशों के सैनिकों को है, उतना अमेरिकी सैनिकों में नहीं है. जमीन की लड़ाई की बजाय अमेरिका हवाई बमबारी या मिसाइल हमले पर अधिक भरोसा करता है. भारत, चीन व पाकिस्तान के सैनिक हर प्रकार की चुनौतीपूर्ण स्थिति में लड़ने के अभ्यस्त हैं. जंगल, पहाड़, बर्फ, दलदल हर कहीं युद्ध करने का जितना अनुभव व सामर्थ्य भारतीय सेना को है, उतना शायद ही किसी को होगा.

    थोथे आदर्शों की दुहाई

    अमेरिका जब किसी युद्ध में उतरता है तो उसे लोकतंत्र की हिफाजत या मानव गरिमा के लिए लड़ाई बताता है. जो देश उसके भरोसे युद्ध करते हैं, उन्हें मालूम होना चाहिए कि अमेरिका उन्हें बीच मझधार में छोड़कर कभी भी भाग निकलेगा. अमेरिका व्यापारी देश है जो लड़ाकू होने का स्वांग करता है. जापान और आस्ट्रेलिया जैसे ‘क्वाड’ के उसके मित्र देशों को समझ लेना चाहिए कि अगर आने वाले समय में अमेरिका ने चीन से हाथ मिला लिया तो उनका कौन रखवाला रहेगा?

    सपनों में जीनेवाला देश

    अमेरिका के 4 राष्ट्रपति जार्ज बुश, ओबामा, ट्रम्प और बाइडन यही दावा करते रहे कि तालिबान कमजोर हो चुका है और अफगान सरकार को कोई खतरा नहीं है. अमेरिका ने गुड तालिबान और बैड तालिबान का काल्पनिक वर्गीकरण भी किया था. अमेरिका ने अफगानिस्तान में 1000 बिलियन डॉलर खर्च किए लेकिन वहां सरकारी सैनिकों के वेतन की रकम नेता और अफसर पचा गए. सरकारी फौजों ने बिना लड़े अपने हथियार तालिबान के हवाले कर दिए. अपने हजारों सैनिकों की बलि चढ़ाकर लुटी-पिटी हालत में अमेरिका वापस लौट आया. उसके लाखों आधुनिक हथियार, दर्जनों हेलिकाप्टर व लड़ाकू विमान, यात्री विमान, फौजी गाड़ियां व संचार उपकरण तालिबान को मुफ्त में मिल गए.

    तालिबान रूपी भस्मासुर अमेरिका ने ही पैदा किया था. रूस से लड़ने के लिए 90 के दशक में अमेरिका के पैसे व हथियारों और पाक खुफिया एजेंसी आईएसआई की ट्रेनिंग से मुजाहिदीन तैयार किए गए. यही मुजाहिदीन बाद में तालिबान कहलाने लगे. अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन तो यही दिखा रहे हैं कि उन्होंने विदेशी भूमि से अपने सैनिक वापस लाने का चुनावी वादा पूरा कर दिखाया. 2 दशक में भी अमेरिका ने अफगानिस्तान में निर्वाचित सरकार को मजबूत नहीं होने दिया और तालिबान की बढ़ती ताकत को नहीं रोक पाया. एक दशक पहले ही तालिबान ने दक्षिण अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया था. अब अमेरिका की हालत यह है कि बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले!