आघाडी को एकता का फल, बीजेपी फिर हुई विफल

    Loading

    महाराष्ट्र में विधान परिषद चुनाव के परिणामों ने शिंदे फडणवीस सरकार का और उसमें भी विशेष रूप से बीजेपी का टेंशन बहुत बढ़ा दिया. 5 सीटों में से केवल एक सीट पर जीत हासिल करने वाली बीजेपी के लिए सबसे बड़ा झटका यह है कि जहां से उसके 3 बड़े नेता आते हैं उस नागपुर-विदर्भ की दो सीटों पर उसे पराजय झेलनी पड़ी. नागपुर शिक्षक निर्वाचन क्षेत्र और अमरावती स्तानक दोनों सीटों पर उसका वर्षों से कब्जा था , वहां उसके दोनों प्रत्याशी हार गये. महाविकास आघाड़ी के घटक दलों के बीच सरकार जाने के बाद भी जिस तरह की एकता बनी हुई है उसका फल उसे मिलते जा रहा है.

    बीजेपी में ज्यादा हो गई हवाबाजी

    नागपुर और अमरावती की सीटों पर पराजित होने के साथ-साथ बीजेपी को औरंगाबाद में तीसरे स्थान पर संतोष करना पड़ा. वहां राकां के विक्रम काले ने जीत हासिल की. बीजेपी को सिर्फ कोंकण की सीट पर संतोष करना पड़ा. वहां भी मंत्री रविन्द्र चव्हाण की कुशल रणनीति के कारण ही पार्टी एकमात्र सीट पर विजयश्री पा सकी. दूसरो का घर फोड़ने में पार्टी इन दिनों इतना मशगूल हो गई है कि उसे इस बात की चिंता ही नहीं रही कि उसकी अपनी चहारदिवारे जर्जर होती चली है. नाशिक में इसी तरह का उदाहरण देखने को मिला. पिछले दिनों सार्वजनिक मंच से उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने कांग्रेस नेता बालासाहेब थोरात से कहा था कि सत्यजीत तांबे जैसे काबिल नेताओं को खुले-आम नहीं छोड़ना चाहिये. अब जब चुनाव हुए तो बीजेपी ने रणनीति के तहत नाशिक की सीट पर अपना प्रत्याशी नहीं उतारा और तांबे की जीत सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाई.

    पार्टी का कैडर ऐसे फैसलों से खुश नहीं है. कैडर का कहना है कि क्या पार्टी के आदर्श और उसूल इतने कमजोर हैं कि बाहरी नेताओं को आयात करना पड़ रहा है. 9 वर्षों के मोदी मैजिक और दो टर्म में बीजेपी की सरकार के 6 साल होने के बाद भी मैदानी स्तर पर पार्टी में कमजोरी और कैडर में कनफ्यूजन नजर आना बहुत अच्छे संकेत नहीं है. जमीन से जुड़ा कार्यकर्ता यह मानता है कि आजकल पार्टी में हवाबाजी ज्यादा हो गई है. विदर्भ में तो हालत बहुत ही ज्यादा खराब होती जा रही है.

    राज्य के तीन बड़े नेता नितिन गड़करी, देवेन्द्र फडणवीस और चंद्रशेखर बावनकुले तीनों विदर्भ से है. इतना ही नहीं तीनों के तीनों नागपुर से नाता रखते हैं, फिर भी नागपुर की विधान परिषद सीट पर पार्टी का बुरी तरह हार जाना कई तरह के सवाल खड़ा करता है. कोई कहता है कि तीन बड़े नेता पार्टी को राष्ट्र में और महाराष्ट्र में बड़ा करने में लगे हुए हैं. उनके पास ऐसे ‘छोटे-मोटे चुनाव’ में ध्यान देने का शायद वक्त ही नहीं है. दूसरी ओर इन तीन नेताओं को छोड़ दिया जाए तो विदर्भ में ऐसा कोई दमदार नेता नहीं है जो पार्टी के लिए जिताऊ साबित हो सके.

    गंभीर हुई कांग्रेस, एकजुट हो रहे नेता

    इस चुनाव के परिणाम ने एक और महत्वपूर्ण संकेत दिया. आघाड़ी के घटक दल में एक कांग्रेस पार्टी के नेता इन दिनों बहुत ही गंभीरता से काम पर लगे हुए हैं. पहली बार इस गंभीरता का सकारात्मक परिणाम तब देखने को मिला था जब नितिन गड़करी की सीट मानी जानी वाली नागपुर विधान परिषद की स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में अभिजीत वंजारी ने जीत हासिल की थी. यह पहला वक्त था जब सुनील केदार की रणनीति कारगर साबित हुई और वंजारी पैटर्न में ही शिक्षक सीट पर लड़ने की योजना बनाई गई. इस बार भी केदार ने पहल की. उम्मीदवार चयन से लेकर तो उसके प्रचार-प्रसार तक सभी कुछ एक रणनीति के तहत हुआ. सभी नेता जी-जान से लगे और उसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस ने विदर्भ के अपने गढ़ में कब्जा वापस लेने के कार्य को आगे बढ़ा लिया.

    इसमें आघाड़ी के बाकी दल राकां और शिवसेना की भी भूमिका है. इसका उदाहरण यह है कि नागपुर सीट पर राकां के एक प्रत्याशी ने बगावत की थी तो पार्टी ने उसपर तत्काल कार्रवाई करते हुए बर्खास्त कर दिया था. इसका संदेश साफ गया. इमानदारी से आघाड़ी के उम्मीदवारों को जीत दिलाना है. नाशिक की सीट पर मात्र कांग्रेस की किरकिरी हुई. सुधीर तांबे की बात सुनकर यदि सत्यजीत को समय पर टिकट दे दी जाती थी तो आज आघाड़ी के पास तीन सीट के बजाय 4 सीट पर जीती हुई रहती. बहरहाल तांबे भविष्य में क्या भूमिका लेते हैं, इसपर बहुत कुछ निर्भर करेगा.

    ओल्ड पेंशन बन रहा प्रमुख मुद्दा

    5 सीटों पर चुनाव में वोटर सभी पढ़े-लिखे थे. कहीं ग्रैजुएट तो कहीं टीचर, ऐसी जगह बीजेपी का हारना दर्शाता है कि लोग बदलाव की तैयारी कर रहे हैं. अगले साल होने वाले विधान सभा और लोकसभा चुनाव के ट्रेलर के रूप में इसे देखा जा रहा है. जब पढ़े-लिखे लोग बीजेपी का साथ छोड़ रहे है तो अन्य लोग क्या करेंगे यह देखना भी दिलचस्प होगा. सबसे बड़ा मुद्दा ओल्ड पेंशन का उभरकर आ रहा है. हिमाचल प्रदेश में सरकार इसी मुद्दे पर गई. राजस्थान में कांग्रेस ने ओल्ड पेंशन दिया है. कर्नाटक में देने का वादा किया. यहां हर जगह कांग्रेस मजबूत है. बीजेपी को सोचना होगा कि ओल्ड पेंशन के टेंशन से कैसे निपटा जाए.