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भारतीय सेना की गौरवगाथा बहुत पुरानी है जिसे पूर्ण सम्मान दिया जाना चाहिए.

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    भारतीय सेना की गौरवगाथा बहुत पुरानी है जिसे पूर्ण सम्मान दिया जाना चाहिए. उसे सुविधानुसार तोड़ा-मरोड़ा जाना उचित नहीं है. यह बहुत अच्छा हुआ कि राष्ट्रीय युद्ध स्मारक (नेशनल वॉर मेमोरियल) का निर्माण किया गया जिसमें उन सभी जवानों के नाम अंकित हैं जिन्होंने 1947 के बाद से हुए युद्धों में अपना बलिदान दिया. इसके बावजूद इंडिया गेट पर स्थित अमर जवान ज्योति को बुझाने का निर्णय कितना सही है? 1971 के बाद बांग्लादेश युद्ध के दौरान पूर्व और पश्चिमी मोर्चे पर शहीद हुए जवानों की स्मृति में 1972 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल पर अमर जवान ज्योति की स्थापना की गई थी. तब से यह ज्योति लगातार प्रज्वलित है. लेकिन अब अमर जवान ज्योति को बुझाने का निर्णय लिया गया है.

    आजादी के पहले शहीद हुए जवानों का भी मान रखें

    क्या 1947 से पहले जो जवान शहीद हुए, उनका कोई महत्व नहीं है? आजादी के पूर्व विदेशी शासकों ने प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में भारत के जवानों के बल पर ही लड़ाई लड़ी थी. इन जवानों को जलयानों से यूरोप ले जाकर ट्रेनिंग देकर अग्रिम मोर्चे पर भेज दिया जाता था. इनके बदन पर गर्म कपड़े तक नहीं होते थे. भारत के हजारों जवान दुश्मन की तोपों के शिकार बने. जब शत्रु की तोपों का गोला-बारूद खत्म हो जाता था तो पीछे रहने वाले अंग्रेज सैनिक आगे बढ़ते थे.

    ब्रिटिश सेना द्वारा पंजाब से जवान भर्ती कर यूरोप के मोर्चों पर लड़ने ले जाया जाता था. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने अपनी चर्चित कथा ‘उसने कहा था’ में लहना सिंह की बहादुरी का वर्णन किया है जिसने बंकर में घुसे जर्मन अफसर को मार गिराया था. यदि इंडिया गेट पर प्रथम व द्वितीय विश्वयुद्ध में शहीद हुए 15,000 भारतीय जवानों के नाम अंकित हैं तो क्या उन्हें भूला-बिसरा मान लेना चाहिए? सरकार ने नेशनल वॉर मेमोरियल का महत्व जताते हुए यह नहीं बताया कि अब वह उन बहादुरों सैनिक शहीदों का सम्मान क्यों नहीं करना चाहती जिन्होंने 1947 के पहले के युद्धों में अपना बलिदान दिया था?

    इतिहास को संजोना जरूरी

    तर्क यह दिए गए हैं कि अमर जवान ज्योति इंडिया गेट के पास है जो कि औपनिवेशिक काल का चिन्ह है. वे 15,000 जवान भाड़े के सैनिक नहीं थे. उनके नाम नेशनल वॉर मेमोरियल में अंकित नहीं हैं. हमारी सेना भी ब्रिटिश इंडियन आर्मी की उत्तराधिकारी रही है. अंग्रेज सेनापति आचिनलेक के बाद जनरल केएम करिअप्पा ने स्वतंत्र भारत के प्रथम सेनाध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला था. हर सेना का इतिहास महत्वपूर्ण रहता है. जो पहले रॉयल एयरफोर्स थी, वही बाद में इंडियन एयरफोर्स बनी. सरकार वह सब मिटा देना चाहती है जो उसे कलंकित लगता है.

    आखिर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में भी तो वही सिपाही भर्ती हुए थे जो पहले अंग्रेजों की ओर से लड़ते हुए जापानियों के हाथों युद्धबंदी बनाए गए थे. क्या दिल्ली में 2 ज्योति के लिए स्थान नहीं है? एक नेशनल वॉर मेमोरियल में प्रज्वलित हो जो 1947, 1962, 1965 और 1999 के कारगिल युद्ध के अलावा यूएन के मिशन तथा श्रीलंका भेजी गई शांति सेना के अभियान में शहीद हुए थे? दूसरी ओर अमर जवान ज्योति भी 1947 के पहले शहीद हुए जवानों की स्मृति में पूर्ववत कायम रहे. इसके लिए उदार दृष्टिकोण चाहिए.

    प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि एक परिवार की भूमिका चमकाने के लिए कई महान व्यक्तियों के योगदान को मिटाने का गलत प्रयास किया गया. आज देश उन गलतियों को ठीक कर रहा है. क्या बीजेपी को पता नहीं है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस को उनके परिवारजनों के विवाद की वजह से ही पहले सम्मानित नहीं किया जा सका. इतिहासकार भी इस बात पर एकमत नहीं थे कि बोस का निधन विमान दुर्घटना में हुआ. विभिन्न जांच आयोगों की रिपोर्ट में भी विसंगतियां थीं.