Criticism of regional parties will not work, Congress should strengthen its ground

देश की जनता किसी का चुनाव मैनिफेस्टो पढ़कर वोट नहीं देती.

    Loading

    दूसरे की खींची गई लकीर को मिटाने की बजाय अपनी लकीर बड़ी बनाकर दिखाना श्रेयस्कर है. कांग्रेस को अपना चिंतन व्यापक बनाना होगा, सिर्फ बीजेपी की राजनीति को संकुचित और विभाजनकारी बताने से काम नहीं चलेगा. राहुल गांधी कब तक कहते रहेंगे कि बीजेपी तोड़ती है और कांग्रेस जोड़ती है. उनकी यह दलील भी जनता बार-बार सुन चुकी है कि बीजेपी 2 हिंदुस्तान बनाना चाहती है- एक अमीरों व 2-3 बड़े उद्योगपतियों का और दूसरा हिंदुस्तान गरीब जनता, आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों का! बेहतर होगा कि राहुल बीजेपी की आलोचना की बजाय अपनी शक्ति यह दिखाने में लगाएं कि वे खुद क्या करना चाहते हैं. देश की जनता किसी का चुनाव मैनिफेस्टो पढ़कर वोट नहीं देती. वह चुनाव में उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक को यह सोचकर चुनती है कि वह दूसरों से कुछ बेहतर है.

    राष्ट्रीय नजरिए की दुहाई

    राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों में विचारधारा की कमी की ओर इशारा किया. उनका तात्पर्य यह था कि कांग्रेस के पास ही राष्ट्रीय नजरिया या दृष्टिकोण है. यहां समझना होगा कि क्षेत्रीय पार्टियां जमीन से जुड़ी होने की वजह से पहले अपने क्षेत्र का ध्यान रखती हैं. उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय चिंतन की आवश्यकता ही क्या है? बंगाल में टीएमसी, ओडिशा में बीजद, महाराष्ट्र में शिवसेना, तमिलनाडु में द्रमुक व अन्ना द्रमुक, तेलंगाना में टीआरएस, आंध्रप्रदेश में वाईआरएस कांग्रेस, झारखंड में झामुमो, दिल्ली व पंजाब में ‘आप’, यूपी में सपा और बसपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियां अपना कुछ न कुछ आधार रखती हैं. स्वयं को राष्ट्रीय पार्टी कहने वाली कांग्रेस को भी तो महाराष्ट्र और झारखंड में क्षेत्रीय पार्टी के नेतृत्ववाली सरकार में भागीदारी करनी पड़ी.

    विचारधारा का जनता पर कितना असर

    कांग्रेस ने दीर्घकाल तक धर्मनिरपेक्षता का बिगुल बजाया और पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी को सांप्रदायिक करार देती रही. इसी तरह कम्युनिस्ट पार्टियां भी मार्क्स और लेनिन का गुणगान करती रहीं लेकिन समय परिवर्तनशील होता है. यदि जनता के लिए विचारधारा ही सबकुछ होती तो सत्ता परिवर्तन संभव नहीं होता. किसी पार्टी की ब्रांडिंग कुछ भी हो, जनता सिर्फ यह देखती है कि कौन उसके लिए हितकर है और क्या वह भरोसेमंद साबित होगा? मतदाताओं का विश्वास हासिल करना और उसे अपने पक्ष में बनाए रखना किसी भी पार्टी के लिए ज्यादा जरूरी होता है. हवाई विचारधारा और खोखले वादे बार-बार जीत नहीं दिला सकते. काठ की हांडी बार-बार आग पर नहीं चढ़ती. न तो कांग्रेस के बहुमत में रहते समय देश की पूरी जनता धर्म के प्रति उदासीन थी और न ही बीजेपी के सत्ता में आने के बाद हर व्यक्ति धार्मिक या परंपरावादी बन गया है. आम जनता को अपनी दाल-रोटी की फिक्र है और वह स्थायित्व के साथ प्रगति चाहती है. यदि विचारधारा ही सब कुछ होती तो लेफ्ट के 3 दशकों की हुकूमत में पूरा बंगाल वामपंथी बन जाता.

    परिवर्तन होता ही रहता है

    कांग्रेस में लोकमान्य तिलक का गरम दल था तो गोपालकृष्ण गोखले का नरम दल भी था. महात्मा गांधी, गोखले के राजनीतिक शिष्य थे लेकिन जब उन्होंने ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ तथा ‘करो या मरो’ के तीखे नारे दिए तब लगा कि वे तिलक के मार्ग पर चल पड़े थे. नेहरू विपक्ष के प्रति सहिष्णु थे लेकिन इंदिरा के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता. उन्होंने इमरजेंसी में सारे विरोधियों को जेल भेज दिया था. इंदिरा ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और राजाओं का प्रिवीपर्स बंद करवाया. नेहरू जो नहीं कर पाए, वह करने का साहस इंदिरा ने दिखाया. कांग्रेस की विचारधारा भी समय और उसके नेतृत्व की सोच के मुताबिक परिवर्तित होती चली गई. सत्ता में रहने का कांग्रेस नेताओं को इतना अभ्यास हो गया कि विपक्ष की भूमिका में खुद को ढाल ही नहीं पाए. जनता उस पार्टी या नेता से प्रभावित होती है जो उसके मन को जीतने की क्षमता रखे. जनता से सीधा जुड़ाव रखने के बाद ही कांग्रेस सफलता की उम्मीद कर सकती है.