कोरोनाकाल में तबाह हुई शिक्षा को संभालना कठिन चुनौती

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    कोरोना वायरस संक्रमण के खतरे को देखते हुए पिछले करीब डेढ़ साल से बंद पड़े स्कूलों को दोबारा शुरू करने की कवायद में केंद्र सरकार जुटी है. सरकार ने सभी राज्यों को नए सिरे से चिट्ठी लिखी है, जिसमें बताने की कोशिश की जा रही है कि यह वायरस संक्रमण बच्चों के लिए डेंगू से भी कम खतरनाक है. सड़क हादसों में इससे कहीं ज्यादा लोगों की मौत हो जाती है. घुमा-फिराकर केंद्र सरकार ने यह भी साफ कर दिया है कि केवल बच्चों के लिए वैक्सीन के इंतजार में स्कूलों को खोलने का फैसला छोड़ा जाना ठीक नहीं है.

    संकेत साफ है कि बच्चों की वैक्सीन का इंतजार लंबा होने वाला है. वैक्सीन मंजूर हो गई, तो भी 15 साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या इतनी ज्यादा है कि सभी को वैक्सीन लगाने में महीनों लगेंगे. इसलिए अब स्कूलों को बिना टीकाकरण के ही खोलने की कवायद चल रही है. इसमें दो राय नहीं कि कोरोना वायरस ने जिन क्षेत्रों में सबसे ज्यादा नुकसान किया है, उसमें शिक्षा भी है. स्कूल-कॉलेजों की पढ़ाई डेढ़ साल में पूरी तरह से चौपट हो चुकी है. कुछ निजी स्कूलों ने ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर थोड़ा बहुत प्रयास किया, लेकिन उसका फायदा कितना हुआ, उस पर गंभीर सवाल हैं. सरकारी स्कूलों में तो यह कोशिश सिर्फ दिखावे तक सीमित रह गई.

    डिजिटल शिक्षा ढोल में पोल

    डिजिटल शिक्षा के नाम पर बड़े-बड़े दावे करने वाली किसी भी सरकार ने यह सच्चाई जानने की कोशिश तक नहीं की कि कितने बच्चों के माता-पिता के पास लैपटॉप या स्मार्टफोन है या उनके पालकों के पास इंटरनेट का डाटा खरीदने की हैसियत भी बची है या नहीं? स्कूल-कॉलेजों में ऑनलाइन पढ़ाई को लेकर सरकारें भले ही कितनी डींगे हांक लें, असलियत क्या है, बच्चों के माता-पिता को अच्छी तरह पता है और वे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं. इस डेढ़ साल की शिक्षा की गुणवत्ता का असर अगले कई वर्षों तक सबसे बड़ी चुनौती बनने वाला है. बिना पढ़ाई के अगली कक्षा में भेजने के नुकसान की भरपाई किस तरह से की जाए, इस पर अब सरकारों, विशेषज्ञों को गंभीरता से सोचना होगा. सरकार के मोर्चे पर तैयारी का यह हाल है कि डेढ़ साल बाद भी राज्यों या केंद्र की सरकार फिजिकल कक्षाओं के बिना गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई का पुख्ता मॉडल तैयार नहीं कर पाई है, जो आम बच्चों को भी सुलभ हो.

    पालकों को सरकारी दावे पर विश्वास नहीं

    केंद्र सरकार भले ही बच्चों को स्कूल भेजने में बड़ा जोखिम नहीं होने के दावे कर रही हो, लेकिन पालकों को सरकारी दावों पर विश्वास नहीं है. कोरोनाकाल में जैसी तबाही व सरकारों की बदइंतजामी लोगों ने अपनी आंखों से देखी है, उसने आम आदमी के विश्वास को अंदर तक हिला दिया है. यही वजह है कि सरकार और वैज्ञानिकों के तमाम दावे के बावजूद माता-पिता बच्चे की सुरक्षा को लेकर आश्वस्त नहीं हैं. बच्चों पर कोरोना संक्रमण के असर को लेकर वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के परस्पर विरोधी दावे भी माता-पिता की दुविधा बढ़ा रहे हैं. बड़ी चुनौती यह है कि संक्रमण का शरीर पर दीर्घकालीन असर क्या होगा, किसी को नहीं पता. बहुत सारे वयस्क मरीज गंभीर संक्रमण से मुक्ति पाने के एक साल बाद भी शारीरिक दिक्कतों से जूझ रहे हैं. बच्चों पर असर का तो कोई विस्तृत अध्ययन ही नहीं हुआ है. सरकार किस आधार पर बच्चों को गंभीर संक्रमण से सुरक्षित मान रही है, इस पर भी सवाल है.

    बच्चे संक्रमित हो परिवार को जोखिम में डाल सकते हैं

    दूसरी समस्या ये है कि बच्चों को गंभीर संक्रमण तो नहीं होगा, लेकिन उनके साथ कोरोना के घर पहुंचने से परिवार के अन्य लोग संक्रमण के जोखिम में होंगे. कोरोना त्रासदी से आम आदमी पर दोहरी मार पड़ी है. अर्थव्यवस्था चौपट है. नौकरी और धंधे को बचाने के संकट के बीच एक बड़ी आबादी के सामने घर के रोजमर्रा के खर्चों को चलाने की चुनौती है. नौकरी से निकाले गए लाखों लोगों को आज भी पुरानी कमाई वाली नौकरी वापस नहीं मिली है. इसके बीच पेट काट कर वह किसी तरह बच्चों की पढ़ाई चालू रखने की कोशिश में हैं. ऐसे अभिभावकों की संख्या लाखों में है, जो अपने बच्चों की फीस भी नहीं दे पा रहे हैं. हमारी ‘सब ठीक है’ या ‘भारत में सब ठीक है’ कहकर सबको रिस्क में डालने की पुरानी आदत को ध्यान से देखें तो दूसरी लहर की तबाही का कारण भी यही रहा है. हम फिर उस त्रासदी को भुलाकर उसी रास्ते पर चलने की कोशिश कर रहे हैं, जो घातक हो सकता है. 37 प्रतिशत  बच्चों के पास मोबाइल नहीं है.