jati-janganana-bihar-2023-first-phase-of-caste-census-in-bihar

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    बिहार में 7 जनवरी 2023 में ‘जनसंख्या की जाति-आधारित गिनती’ का पहला चरण आरंभ हो गया है, जो 21 जनवरी 2023 तक जारी रहेगा. लेकिन इसके चार दिन बाद ही यानी 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में इस कार्यवाही को चुनौती दी गई. जनहित याचिका में इस मुद्दे की त्वरित सुनवाई का आग्रह करते हुए कहा गया है कि ‘जातिगत जनगणना’ राज्य का नहीं बल्कि केंद्र का विषय है. भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने जनहित याचिका को 20 जनवरी 2023 के लिए लिस्ट किया है. एक अन्य याचिका के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 24 दिसंबर 2022 को केंद्र व अन्यों को नोटिस जारी करके जनगणना में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) की जातिगत जनगणना कराने के संदर्भ में प्रतिक्रिया मांगी थी. यह नोटिस कृष्ण कन्हैया पाल की याचिका पर जारी किया गया था, जिसमें कहा गया है कि सरकारें कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ओबीसी के सभी वर्गों तक जातिगत सर्वे के अभाव में नहीं पहुंच पा रही हैं, इसलिए ओबीसी की जातिगत जनगणना की ‘महत्वपूर्ण आवश्यकता’ है.

    याचिका में यह भी कहा गया है कि 2018 में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने घोषणा की थी कि 2021 की जनगणना के दौरान ओबीसी की जनगणना कराई जायेगी, लेकिन सरकार ने अभी तक रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को भी टेबल नहीं किया है, जिसका गठन 2017 में किया गया था. 2011 का सामाजिक-आर्थिक जातिगत डाटा भी कभी जारी नहीं किया गया. नालंदा के रहने वाले अखिलेश कुमार ने अपनी याचिका में बिहार सरकार के नोटिफिकेशन को निरस्त करने का आग्रह इस आधार पर किया है कि जनगणना का विषय संविधान के सातवें शेड्यूल की सूची 1 में आता है इसलिए केवल केंद्र को ही जनगणना कराने का अधिकार है.

    याचिका में यह भी कहा गया है कि जनगणना कानून 1948 में जातिगत जनगणना कराने का प्रावधान नहीं है, इसलिए बिहार सरकार का नोटिफिकेशन ‘संविधान के बुनियादी ढांचे का उल्लंघन करता है’. दूसरी ओर बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का कहना है कि उनकी सरकार जातिगत जनगणना नहीं बल्कि ‘जनसंख्या की जाति-आधारित गिनती’ या सर्वे करा रही है ताकि लोगों की आर्थिक स्थिति के बारे में अधिक डाटा मिल सके. उनके अनुसार, ‘‘हमारा उद्देश्य जमीनी सच्चाई को जानना है.’’

    पिछले साल जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी राज्य में बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार में थी तो विधानसभा में सर्वसम्मति से ‘जनसंख्या की जाति-आधारित गिनती’ का प्रस्ताव पारित किया गया था. हालांकि बीजेपी की केंद्रीय लीडरशिप व केंद्र सरकार इसके पक्ष में नहीं थी, लेकिन बिहार बीजेपी ने प्रस्ताव का समर्थन किया था, इस कॉस्मेटिक परिवर्तन के साथ कि इस प्रक्रिया को परम्परागत सेंसस (जनगणना) की बजाय ‘जाति-आधारित गिनती’ कहा जाये. देश की आजादी के बाद राज्य में पहली बार ऐसा हो रहा है. बिहार में पिछली जाति-आधारित गिनती ब्रिटिश द्वारा 1931 में करायी गई थी, जिसके आधार पर ओबीसी, अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को शिक्षा व जॉब्स में आरक्षण व अन्य सुविधाएं मिल रही हैं. चूंकि डाइवर्सिटी सिद्धांत के तहत जाति के आधार पर ही सियासी, सामाजीक, आर्थिक व शैक्षिक जीवन में जमीनी स्तर से ऊपर तक हिस्सेदारी तय हो रही है, इसलिए विभिन्न जातियों की वर्तमान वास्तविक स्थिति को जानना आवश्यक हो जाता है.

    डाटा से ही समाज के सभी वर्गों की प्रगति सुनिश्चित करना संभव है. अत: नीतीश कुमार की यह पहल स्वागतयोग्य है, जिसका अनुसरण अन्य राज्यों में भी होना चाहिए. यही कारण है कि जब उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी जातिगत गिनती कराने की मांग जोर पकड़ती जा रही है. पड़ोसी झारखंड में भी सभी राजनीतिक पार्टियां ‘जाति-आधारित गिनती’ के लिए दबाव डालने लगी हैं, जबकि राज्य में गठबंधन सरकार का नेतृत्व कर रही जेएमएम चाहती है कि राज्य की ट्राइबल पहचान के चिन्ह के तौर पर यह गिनती उसकी ‘सरना धर्म कोड’ मांग का समर्थन करे. इसमें शक नहीं है कि नीतीश कुमार व तेजस्वी यादव ने फ्रंट फुट पर खेलते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय राजनीति में नये समीकरणों के गठन के लिए द्वार खोल दिए हैं. मंडल आधारित पार्टियों को लगता है कि जातिगत जनगणना से ही वह ओबीसी, एससी, एसटी में बीजेपी की बढ़ती पैठ को रोक सकती हैं. मंडल पार्टियों का तर्क है कि जातियों की वैज्ञानिक गिनती से सरकारों को न सिर्फ अपनी सामाजिक न्याय योजनाओं को दुरुस्त करने का अवसर मिलेगा बल्कि जातियों को अपनी संख्या के अनुपात में मुख्यधारा की अर्थव्यवस्था व राजनीति में हिस्सेदारी मिल सकेगी.

    -विजय कपूर