कोर्ट ने मध्यप्रदेश चुनाव आयोग को 24 मई से पहले चुनाव अधिसूचना जारी करने का निर्देश दिया था.
अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) आरक्षण के नाम पर सभी पार्टियां राजनीति करती हैं क्योंकि यह एक बड़ा वोटबैंक है. सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र के समान ही मध्यप्रदेश में भी बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव कराने का आदेश दिया था. इस मामले में महाराष्ट्र सरकार चूक गई और समय बरबाद करती रही लेकिन मध्यप्रदेश की शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्ववाली बीजेपी सरकार ने तत्परता दिखाकर बाजी मार ली. कोर्ट ने मध्यप्रदेश चुनाव आयोग को 24 मई से पहले चुनाव अधिसूचना जारी करने का निर्देश दिया था. कोर्ट ने कहा था कि ओबीसी को तब तक आरक्षण नहीं दिया जाएगा जब तक वे ओबीसी आरक्षण की शर्तों को पूरा नहीं करते. म.प्र. पिछड़ा वर्ग कल्याण आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें ओबीसी के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण की मांग की गई थी. कोर्ट ने 3 स्तरीय गांव, समुदाय और जिला पंचायतों, नगरपालिकाओं में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के बारे में अध्ययन करने का आदेश दिया था.
शिवराज सरकार ने तत्परता दिखाई
कोर्ट के इस आदेश के बाद मध्यप्रदेश सरकार ने काम शुरू किया. पिछड़ा वर्ग आयोग की स्थापना की और केवल 14 दिनों में सरकार ने ओबीसी को आरक्षण दे दिया. पिछड़ा वर्ग आयोग ने पूरे राज्य का दौरा किया, सभी तथ्य एकत्रित किए, व्यापक सर्वेक्षण किया और मतदाता सूची की जांच के बाद दावा किया कि मध्यप्रदेश में 48 प्रतिशत ओबीसी मतदाता हैं. इस रिपोर्ट के आधार पर ओबीसी के लिए 35 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश करते हुए कोर्ट को रिपोर्ट सौंपी. जिसके आधार पर कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया. अब नगरीय निकाय और त्रिस्तरीय पंचायत के चुनाव में ओबीसी आबादी के हिसाब से अधिकतम 35 प्रतिशत सीटें 50 प्रतिशत की अधिकतम आरक्षण सीमा में रहते हुए आरक्षित की जा सकेंगी.
महाराष्ट्र सरकार चूक गई
महाराष्ट्र सरकार ने पहले केंद्र से ओबीसी का डेटा मांगने में समय बिताया. बाद में यह दलील दी कि कोरोना के कारण ओबीसी का डेटा नया नहीं किया जा सका. अनुभवजन्य (इम्पीरिकल) डेटा प्रदान करने के कोर्ट के अनुरोध के बावजूद जब डेटा नहीं सौंपा गया तो कोर्ट ने आखिरकार आरक्षण के बिना चुनाव कराने का आदेश दे दिया. यद्यपि महाराष्ट्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पहले ही ओबीसी आयोग का गठन कर दिया था लेकिन इस आयोग को निधि व कर्मचारी नहीं दिए गए थे. इसलिए वह कोई काम नहीं कर पाया और आयोग को प्रत्यक्ष रूप से काम करने में विलंब हुआ. जब महाराष्ट्र में विपक्ष ने टीका-टिप्पणी की तो सरकार ने ओबीसी आयोग को निधि और कर्मचारी दिए. दोनों पड़ोसी राज्यों की कार्यप्रणाली में अंतर यह है कि मध्यप्रदेश में ओबीसी आयोग ने केवल 14 दिनों में इम्पीरिकल डेटा एकत्र कर लिया, जबकि महाराष्ट्र का आयोग अभी भी आंकड़े जुटाने में लगा है. इस वजह से महाराष्ट्र में ओबीसी आरक्षण का सवाल लटका हुआ है.
आघाड़ी सरकार पर दबाव
मध्यप्रदेश में ओबीसी आरक्षण को मंजूरी मिल जाने से महाराष्ट्र की आघाड़ी सरकार पर चौतरफा दबाव बढ़ गया है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ठाकरे सरकार भी ओबीसी आरक्षण बचाने के लिए शिवराज सरकार के पैटर्न पर सुप्रीम कोर्ट में संशोधन याचिका दायर करेगी. विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस ने आघाड़ी सरकार की आलोचना करते हुए कहा कि ओबीसी आरक्षण की हत्या के लिए आघाड़ी सरकार जिम्मेदार है. मध्यप्रदेश सरकार जैसी तैयारियों के साथ सुप्रीम कोर्ट गई थी, वैसी तैयारी करने में ठाकरे सरकार नाकाम रही. प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ने सवाल उठाया कि आखिर मध्यप्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को संतुष्ट करनेवाले कौन से आंकड़े उपलब्ध कराए जिसकी वजह से फैसला उसके पक्ष में आया? क्या केंद्र की बीजेपी सरकार ने वह डेटा मध्यप्रदेश सरकार को दिया है?