विपक्षहीन नागालैंड BJP सरकार बनाने में NCP का समर्थन

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सुविधा की राजनीति में पार्टी के आदर्शों और सिद्धांतों की बलि दे दी जाती है. नगालैंड में यही हुआ. वहां बीजेपी की सरकार बनाने में एनसीपी ने अपना समर्थन दे दिया. कितने आश्चर्य की बात है कि एक ओर तो एनसीपी प्रमुख शरद पवार बोल रहे हैं कि सभी विपक्षी दल मिलकर 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को हराएंगे वहीं दूसरी ओर नगालैंड में बीजेपी गठबंधन की सरकार बनाने में एनसीपी और जदयू समेत सारे राजनीतिक दल बिना शर्त समर्थन देने के लिए तैयार हैं. नगालैंड विधानसभा चुनाव में एनसीपी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है. इतने पर भी उसने विपक्ष में बैठना मंजूर नहीं किया बल्कि सरकार में भागीदारी हासिल करने के इरादे से बिनाशर्त समर्थन का एलान कर दिया. खास बात यह है कि नगालैंड में इस बार बिना विपक्ष की सरकार बनने जा रहीहै.

विपक्षरहित सरकार पर किसी का अंकुश नहीं रहता. वह स्वेच्छाधारी बन सकत है. यदि वह विधानसभा में कोई प्रस्ताव पेश करे तो बगैर किसी विरोध या बहस के वह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हो जाएगा. विपक्ष रहित सरकार लोकतंत्र के अनुरूप नहीं कही जा सकती. पक्ष के साथ विपक्ष का अस्तित्व भी जरूरी है.

विपक्षहीन नगालैंड में सरकार की नीतियों व निर्णयों को कैसे कसटी पर कसा जाएगा. विपक्ष सिर्फ बहस ही नहीं करता बल्कि सरकार के कदमों की समीक्षा कर अपने सुझाव भी देता है. यदि विपक्षी पार्टियां ही सरकार को समर्थन देने लग जाएं तो उन मतदाताओं का विश्वास डोल जाएगा जिन्होंने विपक्षी दलों के उम्मीदवारों को चुनाव में जिताया था. विपक्षी पार्टियों का अपनी जमीन खो देना लोकतंत्र के लिए कदापि अभीष्ट नहीं कहा जा सकता.

यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि महंगाई और राष्ट्रीय राजनीति में एनसीपी का रवैया बीजेपी के खिलाफ है तथा आगामी आम चुनाव के लिए विपक्षी पार्टियों का गठबंधन बनाने को तत्पर दिखाई देती है. वहीं नगालैंड में एनसीपी क्यों बीजेपी के साथ खड़ी नजर आती है? यही हाल जदयू का है. नीतिशकुमार के नेतृत्ववाली जदयू-राजद की सरकार का बिहार में बीजेपी से टकराव है लेकिन यही जदयू नगालैंड में बीजेपी गठबंधन को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने को तैयार है. यह कैसा सैद्धांतिक खोखलापन है? नगालैंड की 60 सदस्यों की छोटी विधानसभा में विपक्षी पार्टियां भी सत्ता के मीठे फल चखने को लालायित हो उठी हैं. सभी सरकार में साझेदारी निभाना चाहती हैं. यह लोकतंत्र का मखौल होने के साथ ही मौकापरस्ती और जनता से विश्वासघात है.