रामचरित मानस विवाद के सहारे दिल्ली पहुंचने की तैयारी

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    जानकार मान रहे हैं कि वोटबैंक की राजनीति के लिए एक सोची समझी रणनीति के तहत इस तरह का प्रयोग किया जा रहा है. हालांकि आरंभ में बिहार के मंत्री व उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री द्वारा उठाए गए सवाल को उनके राजनीतिक दलों द्वारा ही व्यक्तिगत बयान बताकर दल को किनारे करने का प्रयास किया गया लेकिन जैसे ही इस विवाद को दलों के रणनीतिकारों द्वारा राजनीति की तराजू पर तौल कर समीक्षा की गई तो इससे तात्कालिक फायदे का आकलन किया गया और इसी वजह से बाद में दल का समर्थन भी इस बयान और बयान देने वाले नेता को मिल गया है. चर्चा है कि सपा व राजद के रणनीतिकारों को इस बयान के सहारे भाजपा व कांग्रेस समेत कई तटस्थ दलों को चुनौती देने का बेहतर आधार मिल गया है इसलिए इसे रोकने के बजाय बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है.

    रामचरित मानस को लेकर वादविवाद इन दिनों चरम पर है. कुछ लोग इसे राजनेताओं द्वारा राजनीतिक लाभ के उद्देश्य से उभारा गया मुद्दा बता रहे हैं तो कुछ लोग इसे स्थापित धर्म, आस्था व परंपरा के खिलाफ सुनियोजित षड्यंत्र बताकर इस तरह के संवाद को गैरवाजिब मान रहे हैं.

    हालांकि कुछ लोग इसे दशकों पहले राजनीतिक हथियार के तौर पर उपयोग किए गए मंडल बनाम कमंडल की राजनीति की अगली कड़ी के रूप में देखते हुए मान रहे हैं कि रामचरित मानस की कुछ चौपाइयों को आधार बनाकर न सिर्फ सामाजिक समरसता को बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है बल्कि एक बार फिर अगड़ी बनाम पिछड़ी जातियों की लड़ाई को नए अंदाज में पेश करने का प्रयास किया जा रहा है. जानकार मान रहे हैं कि बिहार व उत्तरप्रदेश की राजनीति में अभी भी जाति, पंथ और संप्रदाय का बोलबाला है इसलिए इन राज्यों में राजनीतिक लड़ाई को किसी न किसी रूप से जाति व धर्म का चोला पहनानने का प्रयास किया जाता रहा है. मौजूदा राजनीतिक हालात में विकास जिस तरह से राजनीतिक दलों के एजेंडे से गायब हो रहा है, ऐसे में एक दूसरे को जवाब देने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा स्वाभाविक तौर पर ऐसे भावनात्मक मुद्दों का प्रयोग किया जाता रहा है.

    बिहार व उत्तरप्रदेश समेत हिंदी पट्टी वाले राज्यों से लगभग 200 लोकसभा सीट आती हैं और इन राज्यों में किसी न किसी रूप से भाजपा बनाम कांग्रेस या क्षेत्रीय दलों के बीच लड़ाई होती रही है. इतना ही नहीं, हिन्दी पट्टी की ज्यादातर सीटों पर पिछले 2 लोकसभा चुनाव से भाजपा का कब्जा कायम है. ऐतिहासिक तथ्य है कि जब भी चुनाव में धार्मिक आधार पर वोट बंटता है तो विकास व अन्य मुद्दे गायब हो जाते हैं. इसलिए 2024 लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर कुछ राजनीतिक दलों द्वारा रामचरित मानस को आधार बनाकर धर्म बनाम जाति जैसे मुद्दों को आगे बढ़ाकर दिल्ली का रास्ता आसान करने का प्रयास किया जा रहा है.

    राजनीतिक जानकार मान रहे हैं कि जिस तरह से रामचरित मानस के कुछ अंश को कथित रूप से आदिवासी, दलित, पिछड़े समाज और महिलाओं के खिलाफ बताते हुए बयानबाजी कर उसे धार्मिक बहस से ज्यादा राजनीतिक मुद्दा बनाने का प्रयास किया जा रहा है. इस तरह की बहस के लिए चुने गए समय पर गौर किया जाए तो यह स्पष्ट है कि नजर व निशाना 2024 है क्योंकि सैकड़ों वर्ष पहले रचित किसी धार्मिक, सांस्कृतिक और आस्था से जुड़े ग्रंथ के जिस अंश को कथित तौर पर गैरवाजिब कहा जा रहा है वह आज से पहले भी आस्था के साथ सम्मानित रहा था और इसे कुंठित वैचारिक संवाद का शिकार कभी नहीं बनाया गया था.

    इस तथ्य को क्यों भुलाया जा रहा है कि राम ने निषादराज को गले लगाया था और उसे अपना प्रिय भाई कहा था. राम ने भीलनी शबरी के जूठे बेर बड़े प्रेम से खाए थे. उस समय के वनवासियों (वानरों) की सेना बनाई थी. रामचरित मानस की चौपाई में ताड़न के अधिकारी शब्द का उपयोग है. ताड़न का अर्थ डांट-डपट भी होता है. इस शब्द का राम से कोई लेना देना नहीं है बल्कि 500 वर्ष पूर्व के समाज की परिस्थितियों के संदर्भ में यह पंक्ति है. इसे छोड़ कर देखें तो रामचरित मानस जैसा कोई श्रेष्ठ ग्रंथ नहीं है.