संघ को समझ आ गया है कि अगले चुनाव में विकास नहीं, हिंदुत्व काम आएगा

    Loading

    बीजेपी के अभिभावक संगठन आरएसएस की समझ में आ गया है कि कितनी ही बार विकास के मुद्दे पर वोट नहीं मिलते. चाहे जनहित में कदम उठा कर कितना ही विकास कर दो, उसके भरोसे चुनाव जीतने की गारंटी नहीं ली जा सकती. जनता मानती है कि विकास कार्य करना सरकार का कर्तव्य था और यह विकास भी उसने जनता अर्थात टैक्सपेयर के पैसे से ही किया है. 

    इसलिए विकास की तुलना में कोई भावनात्मक मुद्दा जनता को ज्यादा प्रभावित करता है. ऐसे मतदाताओं की बड़ी तादाद है जो भावनाओं के आधार पर निर्णय लेते हैं कि किस पार्टी को वोट देना है. राजनीतिक दल जनता की नब्ज इसी आधार पर पकड़ते हैं कि लोग किस मुद्दे पर भावनाओं में बह सकते हैं और दिमाग की बजाय दिल की आवाज सुनकर किसी दल विशेष को जिता सकते हैं.

    लगभग ढाई वर्ष बाद लोकसभा चुनाव है जबकि यूपी सहित 5 राज्यों का विधानसभा कुछ माह बाद है. इसे देखते हुए संघ राम मंदिर मुद्दे पर विशेष जोर देकर देश भर में अपनी पकड़ मजबूत बनाने में लगा है. वह अयोध्या में बन रहे भव्य राम मंदिर के लिए चंदा जुटानेवाले सभी स्वयंसेवकों को स्थायी सदस्यता देने पर विचार कर रहा है. 

    संघ के निर्णय लेनेवाले सर्वोच्च निकाय अ.भा. प्रतिनिधि सभा में मार्च महीने में इस बात पर चर्चा हुई थी कि क्या जिन्होंने राम मंदिर के लिए चंदा एकत्र करने के अभियान में उत्साह से हिस्सा लिया था, वे संगठन का हिस्सा हो सकते हैं? संघ के संयुक्त महासचिव अरुण कुमार ने कहा कि हमने ऐसे लोगों को स्थायी रूप से हमसे जुड़ने का मौका देकर संगठन के विस्तार के बारे में सोचा.

    व्यापक जनसंपर्क अभियान

    अरुण कुमार ने कहा कि धन एकत्रित करना हमारा उद्देश्य नहीं था क्योंकि राम मंदिर ट्रस्ट के पास वह पहले से है. हमारा लक्ष्य ऐसे अधिकतर लोगों तक पहुंचना और संपर्र्क करना था जो राम मंदिर के लिए योगदान देना चाहते हैं. इस व्यापक अभियान में संघ और उससे जुड़े संगठनों के स्वयंसेवक देश के 6,50,000 गांवों में से 5,34,000 गांवों तक पहुंचे. इसके अलावा हर शहरी इलाके में भी राम मंदिर निर्माण के निमित्त से पहुंचे. संघ अन्य व्यक्तियों की मदद से लगभग 12.73 करोड़ परिवारों तक पहुंचा. उसके इस अभियान में संघ स्वयंसेवकों के अलावा 25 से 30 लाख अन्य लोगों ने भी मदद की. संघ का यह अभियान बीजेपी की मजबूती और चुनावी उद्देश्यों से जुड़ा है.

    अन्य पार्टियां भी उठाती रही हैं भावनात्मक मुद्दे

    देश की विभिन्न पा्र्टिटयां जाति, भाषा और क्षेत्रवाद का मुद्दा उठा कर चुनाव जीतने का प्रयास करती रही हैं. कहीं आरक्षण का मुद्दा हावी होता है तो कहीं क्षेत्रीय पहचान और अस्मिता का! उम्मीदवार भी जातिवाद और भाषावाद के आधार पर तय किए जाते हैं. इसके अलावा धार्मिक भावना से जुड़े मुद्दों को भी भुनाया जाता है. यूपी, बिहार के चुनाव में जातिवाद बुरी तरह हावी रहता है. प्रत्याशी के जीतने की क्षमता इस बात पर अनुमानित रहती है कि उसके जाति-समुदाय के क्षेत्र में कितने वोट हैं और अपने इलाके में वह कितना दबंग और प्रभावशाली है.

    जुमलेबाजी भी चलती है

    एक समय कांग्रेस ने गरीबी हटाओ के नारे पर वोट लिए थे जबकि गरीबी नहीं हटी. जनता गरीब होती चली गई और नेता अमीर होते चले गए. मोदी ने विदेश से कालाधन लाकर हर भारतवासी के खाते में 15 लाख रुपए जमा करने की बात कही थी जिसे बाद में अमित शाह ने चुनावी जुमला करार दिया. तमिलनाडु में मुफ्त उपहार या सुविधा का लालच देकर वोटों का जुगाड़ किया जाता है.