काशी में प्रियंका के ईसाई होने पर आपत्ति नहीं आस्था है तो बाधा क्यों डाली जाए

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सच्चा धर्म संकुचित नहीं होता बल्कि व्यापक आयाम रखता है. संत तुलसीदास (Saint Tulsidas) ने कहा था- जड़ चेतन जग जीव मंह, सबहिं राममय जानी. जब पत्थर और वृक्ष में भी ईश्वर की अनुभूति की जाती है तो फिर भगवान के दरबार में आस्था के साथ आने वाले जीते-जागते इंसानों को क्यों रोका जाए? धर्म ऐसी चीज नहीं है जिसे बेड़ियों में जकड़ा जाए. ईश्वर किसी एक का नहीं, सभी का होता है. धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने इसे संकुचित बना रखा है. यदि वे किसी को मंदिर में प्रवेश से रोकते हैं तो यह इस संपूर्ण सृष्टि को बनाने वाले ईश्वर की अवहेलना ही नहीं, बल्कि मानवता का भी अपमान है.

विवेक का तकाजा है कि जो कोई भी ईश्वर का दर्शन करने की इच्छा रखता है और स्वच्छता व पवित्रता के साथ श्रद्धापूर्वक आता है, उसे वहां आने से न रोका जाए. कुछ लोग तंग नजरिया रखते हुए व्यर्थ की आपत्ति उठाते हैं और इसे लेकर अदालत तक चले जाते हैं. काशी के विश्वनाथ दरबार में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) के दर्शन-पूजन पर आपत्ति जताते हुए यूपी के शिवपुर नटिनियादाई निवासी वकील कमलेशचंद्र त्रिपाठी (Kamlesh Chandra Tripathi) ने याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि प्रियंका गांधी वाड्रा ईसाई हैं. ऐसे में हिंदुओं की धार्मिक भावना आहत हुई है. इस मामले में वाराणसी के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने व्यापक एवं उदार दृष्टिकोण रखते हुए याचिका को खारिज कर दिया. अदालत ने कहा कि बाबा विश्वनाथ की कोई जाति या धर्म नहीं है. बाबा विश्वनाथ (Baba Vishwanath) सबके हैं और सब बाबा विश्वनाथ के. प्रियंका भी हिंदू भावना से ओतप्रोत होकर श्रद्धाभाव के साथ बाबा के दरबार में पहुची थीं. मंदिर में सभी जाति व धर्मों के लोगों को दर्शन कराया जाता है. जब प्रियंका दर्शन करने गईं तो खुद प्रशासनिक अधिकारी व महंत भी मौजूद थे. उन्होंने उसे गलत नहीं माना.

इंदिरा को पारसी होने के कारण जगन्नाथ पुरी मंदिर में प्रवेश से रोका था

प्रियंका गांधी की दादी व पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पारसी होने के कारण जगन्नाथपुरी मंदिर में आजीवन प्रवेश नहीं कर पाई थीं. वहां के पंडों ने उन्हें इसलिए आने से रोका था क्योंकि यद्यपि इंदिरा कश्मीरी ब्राम्हण जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं परंतु उन्होंने फिरोज गांधी से शादी की थी जो पारसी थे. वास्तव में ऐसा कोई उदाहरण या प्रसंग नहीं मिलता कि इंदिरा गांधी ने कभी पारसी धर्म के प्रति खास लगाव दर्शाया हो. विवाह के बावजूद वे तत्कालीन प्रधानमंत्री आवास तीन मूर्ति भवन में अपने पिता के साथ रहीं. फिरोज के परिवार से भी उन्होंने कोई संपर्क नहीं रखा था. पारसी से विवाह के बाद भी इंदिरा गांधी की हिंदू धर्म के प्रति आस्था बनी रही. वे विभिन्न मंदिरों में दर्शन के लिए जाती थीं व रुद्राक्ष की माला पहनती थीं. प्रयागराज जाकर उन्होंने देवरहा बाबा से आशीर्वाद भी लिया था.

मंदिरों के अपने-अपने नियम

 नाशिक के कालाराम मंदिर में अनुसूचित जाति के लोगों को प्रवेश करना मना था. इसी के विरोध में डा. आंबेडकर के नेतृत्व में आंदोलन हुआ था. शबरी जैसी भीलनी के जूठे बेर प्रेमपूर्वक खाने वाले राम के मंदिर में समाज के एक बड़े वर्ग को आने से रोकने में कौन सा औचित्य था? यदि कोई स्नान करके स्वच्छ वस्त्र पहनकर श्रद्धापूर्वक मंदिर में आए तो आपत्ति क्यों होनी चाहिए? ऐसी ही संकुचित नीतियों ने समाज और देश का अहित किया. काशी विश्वनाथ मंदिर में प्रियंका गांधी के प्रवेश को अदालत व जिला प्रशासन ने सही माना लेकिन नाशिक के त्र्यंबकेश्वर मंदिर में अभी भी बोर्ड लगा है कि वहां गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है. आस्था में बंधन क्यों होना चाहिए. कुंभ मेले में कितने ही विदेशी साधु आकर डुबकी लगाते हैं. उनकी आस्था उन्हें वहां तक खींच लाती है. होना तो यह चाहिए कि ‘जात-पांत पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई.’