सांसदों-विधायकों के खिलाफ मामलों पर दशकों तक फैसला ही नहीं हो पाता

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    लोकतंत्र में सभी बराबर हैं. छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच कुछ भी नहीं. इसके बावजूद जनता के वोटों से निर्वाचित विधायक-सांसद खुद को किसी राजा-महाराजा से कम नहीं समझते. खुद को कानून से ऊपर माननेवाले ऐसे लोग कानून को जानबूझकर सरेआम तोड़ते हैं. उन्हें लगता है कि कोई हमारा क्या बिगाड़ लेगा! यह विडंबना है कि सांसदों, विधायकों के खिलाफ चलनेवाले केसेस पर दशकों तक फैसला नहीं हो पाता. आखिर उन्हें इतनी रियायत क्यों दी जाती है? 

    यदि सिस्टम में कोई गड़बड़ी है तो उसे सुधारा जाना चाहिए. यह तथ्य बार-बार सामने आए हैं कि कितने ही सांसदों और विधायकों पर गंभीर अपराधों में मामले बकाया हैं. उन पर हत्या, हत्या का प्रयास, हमला करना, अपहरण, धमकी देना, सांप्रदायिक उपद्रव करवाना, घोटाला-भ्रष्टाचार करना जैसे आरोप हैं. चुनाव आयोग ने यह भी निर्देश दिया था कि उम्मीदवारों को स्वयं पर चल रहे मामलों व आरोपों की जानकारी वेबसाइट पर जारी करनी चाहिए ताकि मतदाताओं को उनके बारे में पता चल सके. 

    प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट दाखिल की है जिसमें कहा गया है कि मौजूदा व पूर्व 51 सांसदों व 71 विधायकों के खिलाफ अवैध धन शोधन (मनी लॉ्ड्रिरंग) रोकथाम अधिनियम के तहत मामले दर्ज हैं. ऐसे मामले में दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी आरोपी है. इसी तरह सीबीआई द्वारा कोर्ट में पेश रिपोर्ट में कहा गया कि मौजूदा व पूर्व सांसदों-विधायकों के खिलाफ कुल 121 केस लंबित हैं. 37 सांसदों के खिलाफ सीबीआई जांच लंबित है. 

    राजनीति का अपराधीकरण एक बड़ी समस्या है. पहले नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधियों का सहयोग लेते थे लेकिन अब अपराधी बैकग्राउंड के दबंग लोग खुद ही चुनाव लडकर विधायक, सांसद और मंत्री बनने लगे. अवैध तरीके से पैसा कमाने की लालसा रखनेवाले ऐसे नेताओं से जनकल्याण की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. वे सिर्फ अपना स्वार्थ साधते रहते हैं. घोटाला, कमीशनखोरी करने पर ही उनका सारा ध्यान लगा रहता है. सांसद और विधायक होना उनके लिए कवच का काम करता है. मामला दर्ज होने के बावजूद जांच एजेंसियां उनके खिलाफ एक्शन लेने में तत्परता नहीं दिखाती.