editorial Constitution is supreme, principle of basic structure is immutable

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    इस स्थिति को अप्रिय कहा जाएगा जिसमें सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश और केंद्र सरकार के बीच टकराव देखा जा रहा है. यह मतभेद सैद्धांतिक प्रतीत होता है लेकिन वस्तुत: इसमें अधिकारों का द्वंद्व है कि शक्तिशाली कौन है संसद या संविधान? कुछ समय पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीश धनखड़ ने संविधान के मूलभूत ढांचे के उस सिद्धांत को चुनौती दी थी जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 1973 के केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया था. इस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि संविधान का आधारभूत ढांचे का सिद्धांत ध्रुव तारे के समान अटल है जो संविधान की व्याख्या के लिए अनमोल मार्गदर्शन प्रदान करता है.

    उन्होंने कहा कि संविधान की सर्वोच्चता के तत्वज्ञान में कानून का राज, शक्तियों का पृथक्करण, संघवाद, स्वतंत्रता, देश की एकता-अखंडता तथा व्यक्ति की गरिमा निहित है. विख्यात विधिवेत्ता ननी पालखीवाला का उल्लेख करते हुए न्या. चंद्रचूड़ ने कहा कि उन्होंने कहा था कि संविधान की निश्चित पहचान है जिसमें बदलाव नहीं किया जा सकता. पालखीवाला स्वामी केशवानंद भारती के वकील थे जिन्होंने केरल के 1969 के भूमिसुधारों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की थी. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय दिया था जिसमें कहा गया था कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है परंतु संविधान के मूलभूत ढांचे में कोई बदलाव नहीं कर सकती.

    जज की कुशलता इस बात में है कि वह संविधान की आत्मा कायम रखते हुए बदलते समय के साथ संविधान की व्याख्या करे. पालखीवाला सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा गांधी के वकील थे लेकिन इमरजेंसी घोषित होने पर उन्होंने वकालत नामा वापस ले लिया था. संविधान में दिए गए अधिकारों के वे पक्षधर थे. यदि संसद को संविधान से ऊपर मान लिया गया तो अनेक जटिलताएं उत्पन्न हो जाएंगी. इमरजेंसी के समय भी तो मूलाधिकार स्थगित कर दिए गए थे.

    क्या कोई बर्दाश्त करेगा कि अभिव्यक्ति की आजादी, देश के किसी भाग में रहने या मनचाहा पेशा अपनाने या व्यवसाय करने की स्वतंत्रता पर रोक लगे? क्या संविधान में अल्पसंख्यकों को दिए गए अधिकार खत्म किया जाना किसी को मंजूर होगा? क्या ऐसा कानून स्वीकार्य होगा जिसमें किसी व्यक्ति को तब तक अपराधी माना जाए जब तक कि वह खुद को बेगुनाह साबित नहीं कर देता? क्या संविधान की सातवीं अनुसूची से राज्यों के अधिकार हटाना सहन किया जाएगा? आज संसद ऐसे कोई भी कानून नहीं बना सकती.

    ऐसा होने पर उसकी न्यायिक समीक्षा होगी. 1967 में गोलकनाथ विरुद्ध पंजाब सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 5-1 के बहुमत से फैसला दिया था कि संविधान में वर्णित मूलाधिकारों को संसद द्वारा हटाया या काट-छांट कर संक्षिप्त नहीं किया जा सकता. 50 वर्ष बाद भी केशवानंद भारती मामले का फैसला किसी देवदूत के समान देश के संविधान और लोकतंत्र का रक्षक बना हुआ है.