editorial How can familyism be removed from politics

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    राजनीति में परिवारवाद का बीजेपी चाहे जितना विरोध करे लेकिन देश की कितनी ही पार्टियों की पहचान और बुनियाद इसी पर टिकी है. ये दल अपना ढर्रा नहीं बदलते क्योंकि उनके कार्यकर्ताओं का लगाव एक परिवार विशेष से बना रहता है. चारा घोटाले का दाग लगने और सजा सुनाए जाने के बावजूद लालूप्रसाद यादव 12वीं बार अपनी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष चुन लिए गए. उनका प्रभाव और लोकप्रियता इसी बात से सिद्ध होती है कि आरजेडी की 2 दिवसीय राष्ट्रीय परिषद की बैठक में 4,000 से अधिक पदाधिकारी शामिल हुए. जाहिर हैं कि पार्टी में लालू का कोई प्रतिद्वंद्वी खड़ नहीं हो पा रहा है. तेजस्वी यादव की राजनीति में पूछ अपने पिता की वजह से है.

    अस्वस्थ रहने की वजह से लालू जेल से बाहर हैं. स्वास्थ्य चाहे जैसा भी हो, वह राजनीति में टिके हुए हैं. इसी प्रकार एमके स्टालिन दूसरी बार सर्वसम्मति से अपनी पार्टी डीएमके के अध्यक्ष चुन लिए गए. वे अपने पिता स्व. एम. करूणानिधि की राजनीतिक विरासत संभाल रहे हैं. इसके पूर्व 2018 में भी स्टालिन को निर्विरोध पार्टी का अध्यक्ष चुना गया था. बीजद भी स्व. बीजू पटनायक द्वारा गठित ऐसी पार्टी है जिसके सर्वेसर्वा नवीन पटनायक हैं.

    पारिवारिक पार्टियों में सपा भी आती है. यदि अन्य पार्टियों की बात करें तो शिवसेना के टूटने से पहले तक पूरी पार्टी का नेतृत्व शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे के पास था. एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने महाराष्ट्र में राजनीतिक उत्तराधिकार अपने भतीजे अजीत पवार को दे रखा है जबकि उनकी बेटी सुप्रिया सुले सांसद के रूप में केंद्र की राजनीति में हैं. कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार की पार्टियां प्रमुखता रखती हैं. बीजेपी हमेशा परिवारवाद को लेकर कांग्रेस पर उंगली उठाती रहती है. कांग्रेस अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव कराने जा रही है परंतु क्या नया अध्यक्ष गांधी परिवार के दबाव-प्रभाव से मुक्त होकर कार्य कर पाएगा? कांग्रेसजन मानते है कि यह परिवार पार्टी को बांधे हुए है.

    राजनीति में व्यक्तिवाद का असर कम नहीं हो पाता. देवकांत बरूआ ऐसे चापलूस कांग्रेस अध्यक्ष थे जिन्होंने ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहा था. 22 वर्षों से सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनी हुई हैं. क्या यह सोचा जा सकता है कि पार्टी का नया अध्यक्ष उनके संकेतों या रिमोट कंट्रोल से बाहर रहेगा? भले ही चुनाव निष्पक्ष बताया जा रहा है जिसमें किसी उम्मीदवार को हाईकमांड का समर्थन नहीं है लेकिन 80 वर्षीय मल्लिकार्जुन खडगे यदि चुने गए तो वे शायद ही अबतक चले आ रहे सिस्टम से बाहर जाएंगे आखिर बीजेपी में भी तो जेपी नड्डा को मोदी-शाह की तय की गई लाइन पर चलना पड़ता है.