editorial Long live the Republic Day with Center-State cooperation

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    भारत उपनिवेशवाद की बेड़ियां तोड़कर 26 जनवरी 1950 को सार्वभौम गणराज्य बना. उसे अपना संविधान मिला जो विश्व के देशों के श्रेष्ठ संविधानों में से एक माना जाता है. इसमें वर्णिन मूलाधिकारों में देश के हर नागरिक को स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, अभिव्यक्ति की आजादी, वयस्क मताधिकार, अपनी मर्जी का पंथ या धर्म मानने की छूट, व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार प्रदान किया गया. लोकतंत्र के स्तंभो के रूप में कार्यपालिका, संसद और न्यायपालिका का प्रावधान किया गया. अधिकारों का विकेंद्रीकरण करते हुए केंद्रीय सूची, राज्यों की सूची और समवर्ती सूची बनाई गई ताकि कानून बनाने के अधिकारों को लेकर कोई एकराय न होने पाए.

    आजादी के बावजूद देश में गवर्नर जनरल का पद कायम था लेकिन संविधान लागू होने के साथ ही राष्ट्रपति देश के संवैधानिक प्रमुख बन गए. आजादी की अपूर्णता गणतंत्र दिवस ने परिपूर्णता में बदल दी. गणतंत्र दिवस समूचे भारतवासियों के लिए अत्यंत गौरवशाली राष्ट्रीय पर्व है जो हमें आत्मगौरव प्रदान करता है. पहले जो प्रांत थे, उन्हें अधिकार संपन्न राज्य का दर्जा दिया गया. राज्यों के संवैधानिक प्रमुख के रूप में राज्यपाल की नियुक्ति की गई. संविधान में अभीष्ट है कि सभी राज्य केंद्र से सहयोग बनाए रहेंगे और परस्पर सामंजस्य रखेंगे.

    विगत वर्षों में राष्ट्रवाद के मुकाबले भाषा, क्षेत्रीयता व संस्कृति की आड़ में कुछ राज्यों में उपराष्ट्रवाद (सबनेशनलिज्म) पनपने लगा है. यह एक खतरनाक सिलसिला है. कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच छत्तीस का आंकड़ा नजर आता है. जिन राज्यों में विपक्षी पार्टियों की सरकारे हैं उनकी केंद्र से नहीं पटती. बंगाल-तमिललाडु व महाराष्ट्र में ऐसे प्रसंग आए. अब तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने हद कर दी. उनकी सरकार ने राज्यपाल तमिलराई सौंदराजन से कहा कि वे गणतंत्र दिवस पर अपना अलग कार्यक्रम कर लें.

    इस तरह तेलंगाना में मुख्यमंत्री और राज्यपाल के दो अलग समारोह रहेंगे. तेलंगाना में राज्यपाल ने सरकार के 8 विधेयक रोक रखे हैं जो उनके हस्ताक्षर के बगैर कानून नहीं बना सकते. तमिलनाडू, केरल और छत्तीसगढ़ में भी ऐसी ही स्थिति है जहां विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को राज्यपाल ने अपनी स्वीकृती नहीं दी है. संविधान के अनुच्छेद 200 में इसे लेकर विकल्प दर्शाए गए हैं. यह पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए कि राज्यपाल कितने दिनों तक विधेयक को अटका कर रख सकते हैं. जब राष्ट्रपति के लिए बंधनकारी है कि वे 14 दिनों के भीतर संसद द्वारा पारित विधेयक को स्वीकृति दें या पुनर्विचार के लिए भेजें तो राज्यपाल पर भी ऐसी बाध्यता होनी चाहिए. गणतंत्र की परिपूर्णता केंद्र और राज्यों के सहयोगपूर्ण संबंधों में ही है.