अमेरिकी सेना चले जाने के बाद तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा तो कर लिया लेकिन 3 सप्ताह बीत जाने के बाद भी वह सरकार नहीं बना पाया है. स्पष्ट है कि लड़ाई में एक्सपर्ट होना और सरकार बनाना व चलाना, दोनों अलग-अलग बातें हैं. तालिबान सिर्फ अव्यवस्था, दरिंदगी व आतंक पैदा कर सकता है लेकिन सुव्यवस्थित सिस्टम के साथ शांतिपूर्ण माहौल में जिम्मेदार किस्म की सरकार दे पाना उसके लिए टेढ़ी खीर है. जैसे लूट के माल को लेकर लड़ाई हो, वैसे ही अफगानिस्तान में सत्ता की कुर्सी को लेकर तालिबान और हक्कानी नेटवर्क आपस में भिड़ गए हैं.
तालिबान के सहसंस्थापक अब्दुल गनी बरादर और हक्कानी गुट के बीच सत्ता संघर्ष को लेकर गोली चली. इस झड़प में अब्दुल गनी बरादर घायल हो गए, जिनका पाकिस्तान में इलाज चल रहा है. पाकिस्तान ने दोनों गुटों में सुलह कराने और अफगानिस्तान में सरकार बनाने का रास्ता सुझाने के लिए अपनी खुफिया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद को काबुल भेजा है. गत 15 अगस्त को पश्चिमी देशों द्वारा समर्थित सरकार गिर जाने और राष्ट्रपति अशरफ गनी के भाग जाने के बाद तालिबान का राजधानी काबुल पर कब्जा हो गया था. इतने पर भी पंजशीर व अंदराब में अहमद शाह मसूद के एनआरएफए के लड़ाकों से तालिबान का खूनी संघर्ष जारी है. मसूद का साथ अफगानिस्तान की नियमित सेना के बचे हुए फौजी तथा स्पेशल फोर्स यूनिट के जवान दे रहे हैं. तालिबान और मसूद के बीच समझौते के प्रयास विफल रहे हैं.
अमेरिकी सेना की वापसी की वजह से तालिबान ने 20 वर्ष बाद पुन: अफगानिस्तान पर कब्जा किया है लेकिन विश्वास नहीं होता कि उसके तौर-तरीकों में कोई बदलाव आया है. तालिबान महिलाओं की शिक्षा, नौकरी व आजादी का कट्टर विरोधी है. वह उन्हें सिर से पैर तक बुरखे में रखने व घर से बाहर न निकलने का फरमान सुना चुका है. संगीत-कला व शिक्षा संस्थाओं का भी वह विरोधी है. वह शरीयत के कानून के मुताबिक कठोर सजा देता है जिसमें हाथ-पैर काट देना, सिर धड़ से अलग करना शामिल है. महिलाओं का तालिबानी लड़ाकों के ऐश के लिए घर से अपहरण कर लिया जाता है. पाकिस्तान व चीन के समर्थन के बावजूद ऐसा जंगलराज चलाने वाले खूंखार तालिबान से जिम्मेदार सरकार बनाने की उम्मीद करना बेकार है.