सत्ता भी गंवाई, पार्टी भी टूटी ‘चाणक्य के चक्रव्यूह’ में फंसे भलेमानुष

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    राजनीति में ऐसे घाघ लोग ही टिक सकते हैं जिन्हें उड़ती चिड़िया के पंख पहचानना आता हो. जिसे उखाड़-पछाड़ की कला नहीं आती और जो दूसरे की उंगली पकड़कर चलता आया है, ऐसा ‘भलामानुष’ दूसरों पर आश्रित बनकर रह जाता है. उद्धव ठाकरे का भी कुछ ऐसा ही हाल रहा. उन्हें अपने पिता बाल ठाकरे की विरासत तो मिली लेकिन उसे जतन से सहेजना उन्हें नहीं आया. उद्धव के मिजाज, व्यक्तित्व और कार्यशैली में कहीं भी बाल ठाकरे की दबंगियत व दृढ़ता की झलक नहीं थी.

    सीएम पद की चाह ने उन्हें ऐसी पार्टियों के साथ बेमेल गठबंधन करने के लिए प्रेरित किया जिनसे शिवसेना की विचारधारा का दूर-दूर तक कोई तालमेल नहीं था. महाविकास आघाड़ी रूपी सर्कस के असली रिंगमास्टर शरद पवार थे, जिन्होंने विधानसभा चुनाव में अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनकर आई बीजेपी को सत्ता से दूर रखने के लिए महाविकास आघाड़ी बनवाई. इसमें उद्धव ठाकरे नाममात्र के मुख्यमंत्री थे, सत्ता की मोटी मलाई एनसीपी ने खाई. सारे महत्वपूर्ण मंत्रालय एनसीपी ने अपने कब्जे में रखे.

    आघाड़ी की गाड़ी के पिछले कम्पार्टमेंट के रूप में कांग्रेस को सरकार में हिस्सेदारी मिल गई. आघाड़ी उद्धव के लिए मजबूरी थी, जबकि एनसीपी और कांग्रेस के लिए वरदान! आघाड़ी में रहकर शिवसेना के आक्रामक हिंदुत्व की धार कुंद होती चली गई. युति टूटने से असली खुशी एनसीपी और कांग्रेस को हुई थी. शरद पवार जैसे चाणक्य के चक्रव्यूह में ‘भलेमानुष’ उद्धव बुरी तरह फंस गए थे. उनकी हालत परकटे पंछी जैसी हो गई थी. आघाड़ी के असली कर्ताधर्ता पवार थे जिन्होंने उद्धव को कठपुतली बनाकर रख दिया था.

    शिवसेना के विधायकों को एनसीपी और कांग्रेस की तुलना में अपने चुनावक्षेत्र के विकास के लिए फंड कम मिल रहा था. वे खुद को सम्मान से भी वंचित पा रहे थे. अपने चुनावक्षेत्र की जनता की आकांक्षाओं को वे आघाड़ी में रहते पूरा नहीं कर पा रहे थे. सीएम से सीधे मुलाकात संभव नहीं थी. आघाड़ी पर पवार का नियंत्रण था और सीएम के मौन का फायदा उठाकर संजय राऊत का बड़बोलापन उनकी ही पार्टी के लोगों को नाराज कर रहा था. आघाड़ी सरकार अंधे मोड़ पर जा रही थी. ऐसे में उद्धव ठाकरे को क्या मिला? अपने हुए पराए! उन्होंने सत्ता भी गंवाई और पार्टी भी टूटी.