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यह विचित्र संयोग है कि श्रीलंका के बाद अब उत्तरी पड़ोसी देश नेपाल की अर्थव्यवस्था भी खस्ता हाल हो रही है.

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    किसी देश की अर्थव्यवस्था डूबने के पीछे अनेक कारण होते हैं- या तो इसके पीछे गलत व अदूरदर्शी आर्थिक नीतियां होती हैं अथवा अंतरराष्ट्रीय स्थितियों का प्रभाव! यह विचित्र संयोग है कि श्रीलंका के बाद अब उत्तरी पड़ोसी देश नेपाल की अर्थव्यवस्था भी खस्ता हाल हो रही है. श्रीलंका की इकोनॉमी का भट्ठा बैठ जाने के पीछे उसका चीन के कर्ज जाल में फंसना, निवेश लाने के लिए टैक्स में भारी रियायत देना तथा आयात बिल कम करने के लिए रासायनिक खाद पर प्रतिबंध लगाना जैसी बातें मोटे तौर पर सामने आई हैं.

    रासायनिक खाद का उपयोग बंद करने से कृषि उत्पादन बेहद कम हो गया और अनाज, तेल, चीनी, चाय, खानपान की वस्तुओं के दाम आसमान छूने लगे. नेपाल का मामला अलग किस्म का है. वह पहाड़ी देश होने से अपनी तमाम जरूरतों के लिए भारत या चीन पर निर्भर रहता है. पेट्रोलियम पदार्थों जैसे कि पेट्रोल, डीजल व गैस के दामों में भारी वृद्धि से नेपाल जैसा छोटा देश बुरी तरह प्रभावित हुआ और वहां सभी चीजों की कीमतें बढ़ गईं. नेपाल का विदेशी मुद्रा भंडार लगातार घट रहा है. इम्पोर्टेड पेट्रोलियम के लिए नेपाल सरकार भारत को हर महीने 24 से लेकर 29 अरब रुपए का भुगतान करती है.

    इस समय नेपाल की गंभीर आर्थिक स्थिति को देखते हुए नेपाल राष्ट्र बैंक (एनआरबी) ने वित्त मंत्रालय से कहा है कि वह पेट्रोलियम उत्पाद के आयात को नियंत्रित करे. 27 कमर्शियल बैंकों के साथ बैठक में एनआरबी ने कहा कि वाहन लोन या गैरजरूरी कर्ज देना तत्काल बंद किया जाए. डूबती अर्थव्यवस्था को किसी न किसी तरह बचाने के लिए विलासिता की वस्तुओं (लग्जरी गुड्स) के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, जिसकी काफी लंबी सूची है.

    ऐसे में कपड़ा, चावल, डेयरी उत्पाद, केला, मांस, मछली, कोयले का आयात रोकने से जनता की परेशानी बढ़ेगी. ऐसी स्थिति में नेपाल भारत से उम्मीद कर सकता है कि वह उसे भी श्रीलंका के समान ही मानवीय आधार पर मदद मुहैया कराए. मदद तो चीन से भी मिल सकती है लेकिन वह इसकी आड़ में कर्ज के चंगुल में फंसा लेता है और प्राकृतिक संसाधनों को अपने कब्जे में ले लेता है.