डाक्टरों को उपहार पर मनाही, रास्ते तो बहुत हैं दवा कंपनियों के पास

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    कितनी ही बार मरीज अनुभव करते हैं कि डॉक्टर अपने प्रिस्क्रिप्शन में जो दवा लिखता है, वह या तो काफी महंगी होती है या फिर आसानी से आसपास के स्टोर में नहीं मिलती. इसकी वजह यह होती है कि उस नई दवा को उसकी निर्माता कंपनी डाक्टरों के जरिए प्रचलित व प्रचारित करना चाहती है. उसी बेसिक साल्ट (मूल तत्व) की जेनरिक या सस्ती दवा डाक्टर कभी नहीं लिखता जबकि वह भी उतनी ही प्रभावकारी होती है. डाक्टर की फीस और दवा कंपनियों के मुनाफे पर चिकित्सा तंत्र टिका हुआ है. 

    काफी लंबे समय से सिलसिला चला आ रहा है कि औषधि निर्माता कंपनियां अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए डाक्टरों को मुफ्त उपहार देती रही हैं. इन उपहारों में सोने के सिक्के, फ्रिज, एलसीडी टीवी जैसी गिफ्ट से लेकर छुट्टियां बिताने या चिकित्सा सम्मेलनों में भाग लेने के लिए अंतराष्ट्रीय यात्राओं में जाने का खर्च उठाना भी शामिल है. एक दवा कंपनी ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर मांग की थी कि डाक्टरों को दिए गए उपहार के मद पर टैक्स में छूट दी जाए. 

    कंपनी की दलील थी कि यद्यपि डाक्टरों का ऐसे उपहार स्वीकार करना कानून के दायरे में प्रतिबंधित है लेकिन किसी भी कानून के तहत इसे अपराध नहीं ठहराया गया है. इसलिए कंपनियां इस मद में टैक्स बेनेफिट या कर लाभ हासिल करने की हकदार हैं. सुप्रीम कोर्ट के न्या. यूयू ललित व न्या. रवींद्र भट ने यह अपील ठुकरा दी. 

    यह फैसला तो अपनी जगह है लेकिन दवा निर्माता कंपनियों के पास डाक्टरों को उपकृत करने के और भी बहुत से रास्ते होते हैं. डाक्टर अपने नुस्खे में उनकी दवाई लिखते चले जाएं, उन्हें लाभ पहुंचाने कोई न कोई इंतजाम कंपनियां कर ही लेंगी. टैक्स बेनेफिट न मिले तो भी क्या, डाक्टर और दवा कंपनियों का रिश्ता ऐसा रहता है कि इस हाथ दे, उस हाथ ले. तेरी भी चुप और मेरी भी चुप!