न्याय में असाधारण विलंब को न्याय नहीं माना जा सकता. इसीलिए कहा गया है- जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड! देश के विभिन्न राज्यों के हाईकोर्ट में जजों के पद खाली पड़े हैं. स्वीकृत संख्या के मुताबिक जजों की नियुक्ति नहीं होने का नतीजा यह है कि बकाया मामलों की तादाद लगातार बढ़ती ही चली जा रही है. कितने ही मामलों में न्याय की राह देखते-देखते संबंधित व्यक्ति की मौत हो जाती है लेकिन फिर भी फैसला नहीं हो पाता. कितने ही दिवाली मामले पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं. उत्तर भारत के उच्च न्यायालयों (High Court) में पिछले 30 वर्षों से सिविल ही नहीं आपराधिक मामले भी लंबित हैं.
मुकदमों की बड़ी संख्य है और उस अनुपात में जज (Judges) ही उपलब्ध नहीं हैं. कितने ही विचाराधीन कैदी वर्षों से जेल में पड़े हैं और उनके मामले की तारीख ही नहीं लग पाई. छोटे मोटे अपराध के बावजूद वे लंबे समय से इसलिए जेल में हैं क्योंकि कोई जमानत लेने वाला ही नहीं मिल पाया. यह सारी स्थितियां अत्यंत चिंताजनक हैं. न्यायपालिका में खाली पड़े पदों के कारण लंबित मामलों के बढ़ने पर सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने नाराजगी जताई है.
आखिर राज्य सरकारें क्यों नहीं जजों के रिक्त पद भरतीं? सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एसए बोबडे (Sharad Arvind Bobde) ने कहा कि कोई मामला 8 वर्ष से ज्यादा समय से लंबित हैं तो उसमें हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस को एडहॉक जज (तदर्थ न्यायाधीश) की नियुक्ति कर देनी चाहिए. इससे किसी जज की वरिष्ठता को खतनरा नहीं होगा. इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल तक सभी पक्षों से लिखित जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है. एडहॉक के जज की नियुक्ति एक संवैधानिक प्रावधान है जिसका इस्तेमाल ही नहीं किया गया. इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से कहा गया कि 2016 में उसकी ओर से एडहाक जजों के लिए 6 नामों की सिफारिश की गई थी लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं हुआ.