सुप्रीम कोर्ट भी चिंतित बड़े उद्योग में बदल चुकी है शिक्षा प्रणाली

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    पिछले कितने ही दशकों से शिक्षा की दूकानदारी जारी है. अधिकांश शिक्षा संस्थाएं नेताओं या उनके रिश्तेदारों की हैं. उन्हें सरकार से कॉलेज खोलने की अनुमति और बेहद सस्ते दाम में जमीन मिल जाती है. इसके बाद वे दोनों हाथों से भरपूर कमाई करते हैं और अनेक शिक्षा संस्थान खोलकर ‘शिक्षा महर्षि’ कहलाने लग जाते हैं. सर्वविदित है कि ऐसे निजी मेडिकल व इंजीनियरिंग कॉलेजों में मोटी रकम लेकर प्रवेश दिया जाता है. आखिर सुप्रीम कोर्ट ने भी एक मामले की सुनवाई करते हुए तीखी टिप्पणी कर देश में शिक्षा के उद्योग में बदल जाने पर चिंता जाहिर की.

    देश की सबसे बड़ी अदालत ने कहा कि एजुकेशन एक बड़ा उद्योग बन चुका है, जिसके चलते देश में मेडिकल शिक्षा का भारी खर्च उठा सकने में असमर्थ छात्रों को पढ़ाई के लिए बाहरी देशों में जाना पड़ रहा है. शिक्षा संस्थाओं को संचालित करने वाले बड़े कारोबारी समूह हैं. भारत के हजारों छात्र मेडिकल शिक्षा के लिए रूस, चीन, यूक्रेन, बेलारूस जाने के लिए बाध्य हैं.

    वहां अपेक्षाकृत काफी कम लागत में पढ़ाई कर मेडिकल डिग्री मिल जाती है. इसके बाद इन छात्रों को भारत आकर एक और परीक्षा देनी पड़ती है जिसे पास करने के बाद वे प्रैक्टिस कर सकते हैं. भारत में डॉक्टरों की कमी चिंता का विषय है. ग्रामीण व आदिवासी क्षेत्रों में डॉक्टर नहीं हैं. वहां नीम-हकीम या झोलाछाप फर्जी डाक्टरों का बोलबाला है. दूसरी ओर शहरों में जो डाक्टर हैं, वे अपनी पढ़ाई पर आए करोड़ों के खर्च को वसूलने के लिए पूरी तरह व्यावसायिक दृष्टिकोण अपनाते हैं.

    यहां मानवीय दृष्टिकोण पीछे छूट जाता है. कोरोना संकट के समय निजी अस्पताल चलाने वाले डॉक्टरों ने अंधाधुंध कमाई की. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीआर गवई और हिमा कोहली ने कहा कि मेडिकल एजुकेशन की फीस सामर्थ्य से बाहर हो गई है. सरकार को इसका युक्तिसंगत हल खोजना चाहिए. मेडिकल कॉलेज खोलने की शर्तें भी कड़ी हैं. इसके साथ एक अस्पताल और होस्टल आदि के लिए बड़ा भूखंड होना चाहिए. इन्हीं वजहों से कारोबारी समूहों का मेडिकल शिक्षा में दखल बढ़ा है.