बहस नापसंद, सीधे ‘मन की बात’ करते हैं, मोदी सरकार में संसद की उपेक्षा

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किसी नेता का अत्यंत शक्तिशाली और लोकप्रिय हो जाना लोकतंत्र के लिए अहितकर होता है. उस नेता का कद इतना बढ़ जाता है कि कोई उसका विरोध करना तो दूर, असहमति जताने की भी हिम्मत नहीं करता. ऐसी परिस्थिति में वह नेता किसी के प्रति जवाबदेह नहीं रह जाता और समस्त निर्णय स्वयं लेकर मनमाने फैसले करने लग जाता है. अधिनायकवादी प्रवृत्ति यहीं से शुरू होती है. अब प्रधानमंत्री मोदी को लेकर यह तथ्य सामने आया है कि वे 6 वर्ष में केवल 22 बार संसद में बोले जबकि बीजेपी नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने पीएम रहते 6 वर्ष में 77 बार संसद में भाषण दिए थे. पूर्व पीएम मनमोहन सिंह 10 वर्ष के कार्यकाल में 48 बार बोले थे. इतना ही नहीं सिर्फ 2 साल पीएम रहे एचडी देवगौड़ा ने भी संसद में मोदी से ज्यादा बार अपनी बात रखी. अब सवाल उठता है कि इतने प्रखर और प्रभावशाली वक्ता होने के बावजूद मोदी संसद में बोलना क्यों टालते हैं जबकि वहां उनकी जवाबदेही सर्वाधिक है. 2014 में पहली बार संसद के लिए निर्वाचन होने के बाद संसद भवन की सीढ़ियों पर माथा टेकनेवाले मोदी उसी संसद से विमुख या उदासीन क्यों हो गए? क्या माथा टेकना उनका नाटकीय या बनावटी अंदाज था? यदि नहीं, तो वे संसद से कन्नी क्यों काटते हैं? यह एक सहज प्रश्न है जो संसदीय लोकतंत्र में आस्था रखनेवालों के मन में कौंधता है.

एकतरफा संदेश देने में विश्वास

लोगों के मन में यह धारणा बन गई है कि मोदी एकतरफा संदेश देने में विश्वास रखते हैं. वे संसद की बजाय सीधे जनता को संबोधित करना सुविधाजनक मानते हैं. इसीलिए आकाशवाणी और टीवी के जरिए ‘मन की बात’ कहते हैं. आलोचकों की राय में यह मोदी के मन की बात है, जनता के मन की नहीं! इस तरह एकपक्षीय संदेश देने से उसे सुननेवाला या अखबार में पढ़नेवाला उनसे कोई सवाल नहीं कर सकता. संसद में मोदी बोलेंगे तो विपक्ष उनसे सवाल करेगा या टोकाटाकी करेगा. उनके वक्तव्य को चुनौती देने के अलावा उसमें कुछ खामियां भी निकालेगा. मोदी ऐसी बहस टालना चाहते हैं. उनका रवैया ऐसा है कि उन्होंने जो कह दिया वो पत्थर की लकीर. उसमें कोई संशोधन या परिवर्तन नहीं हो सकता.

पार्टी सांसद भी चुपचाप सुनते हैं

बीजेपी संसदीय दल की बैठक में भी आरएसएस जैसा अनुशासन चलता है. वहां मोदी जो कहते हैं, उसका कोई विरोध या हस्तक्षेप नहीं कर सकता. नाना पटोले जब लोकसभा सदस्य थे तब उन्होंने बीजेपी संसदीय दल की मीटिंग में मोदी के बयान पर सवाल उठाते हुए किसानों के संबंध में अपनी बात रखनी चाही तो उन्हें बोलने नहीं दिया गया और चुपचाप बिठा दिया गया. बाद में पटोले ने बीजेपी छोड़ दी. मोदी को किसी भी प्रकार की विचारभिन्नता या अलग दृष्टिकोण बर्दाश्त नहीं है. वे उसे सुनने का भी धैर्य नहीं रखते.

अध्यादेश का रास्ता

एक रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार संसद को नजरअंदाज कर अध्यादेश जारी करने का रास्ता अपनाती है. मनमोहन सरकार की तुलना में मोदी सरकार प्रति वर्ष औसत रूप से 11 अध्यादेश लेकर आई जबकि मनमोहन सरकार औसतन 6 अध्यादेश लेकर आती थी. मोदी सरकार संसदीय समिति या प्रवर समिति में भी विचार के लिए बिल भेजने से कतराती है. इस तरह संसद की अनदेखी की जाती है. लोकसभा और राज्यसभा में विधेयक पेश कर उस पर बहस कराना सरकार को मंजूर नहीं है. कितने ही बिल हंगामे या विपक्ष के बहिर्गमन के बीच ध्वनिमत (वॉइस वोट) से पास करा लिए जाते हैं.

नेहरू का दृष्टिकोण क्या था

प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ब्रिटिश पार्लियामेंट्री सिस्टम की परंपरा भारत में भी निभाना चाहते थे इसलिए बहस का पूरा अवसर देते थे. तब डा. राममनोहर लोहिया, फिरोज गांधी, आचार्य कृपलानी, आचार्य रंगा, अटलबिहारी वाजपेयी जैसे विपक्षी नेता संसद में नेहरू सरकार को आड़े हाथ लेते थे. नेहरू एक अखबार में ‘चाणक्य’ नाम से कालम लिखते थे. उसमें उन्होंने मत व्यक्त किया था कि अपार लोकप्रियता किसी व्यक्ति को तानाशाह बना देती है. ऐसी स्थिति देश में कभी नहीं आनी चाहिए. यद्यपि डा. लोहिया हर बार नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़कर हार जाते थे, उनकी जमानत जब्त हो जाती थी फिर भी नेहरू संसद में लोहिया की मौजूदगी चाहते थे इसलिए उन्हें किसी उपचुनाव में जीतने का मौका दे दिया जाता था. इंदिरा गांधी भी सख्त स्वभाव की थीं लेकिन विपक्ष के नेताओं को बोलने का पूरा मौका देती थीं. यह बात अलग है कि जब उन्होंने 1975 में इमरजेंसी लागू की तो समूचे विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया था. उनके व्यक्तित्व में नेहरू जैसी सहिष्णुता नहीं थी. कोई यह भी सोच सकता है कि क्या मोदी का स्वभाव भी कुछ-कुछ इंदिरा जैसा है! वैसी ही सख्ती और एकपक्षीय तौर पर निर्णय लेने का तरीका अब भी नजर आ रहा है. किसान बिलों पर मोदी सरकार का रवैया इसी की बानगी है.