क्या सचमुच कोई UPA नहीं है?

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    अपने मुंबई प्रवास में एनसीपी प्रमुख शरद पवार से चर्चा के बाद टीएमसी प्रमुख और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि यूपीए क्या है? कोई यूपीए नहीं है. अपने इस उदगार से ममता ने यूपीए को अस्तित्वहीन बताते हुए यूपीए की प्रमुख कही जानेवाली कांग्रेस को खुली चुनौती दी है. यह क्षेत्रीय पार्टियों को संकेत है कि कांग्रेस ऐसी स्थिति में नहीं है कि बीजेपी को चुनौती दे सके. इसकी बजाय क्षेत्रीय दलों का एक अलग समूह बनाया जाना चाहिए.

    2004 में बना था यूपीए

    2004 के लोकसभा चुनाव में अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) की पराजय के बाद कांग्रेस 145 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. बीजेपी से वह 7 सीटों से आगे थी. तब कांग्रेस और सीपीएम महासचिव हरकिशनसिंह सुरजीत ने विभिन्न पार्टियों को अपने साथ लेकर यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (यूपीए) नामक गठबंधन बनाया. ये पार्टियां थीं- राजद, डीएमके, एनसीपी, पीएमके, टीआरएस, जेएमएम, लोजपा, एमडीएमके, एआईएमआईएम, पीडीपी, आईयूएमएल, आरपीआई (ए), आरपीआई (जी).  4 वामपंथी पार्टियों सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने समान न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दिया. यद्यपि कांग्रेस ने सपा और रालोद को आमंत्रित नहीं किया था लेकिन सुरजीत ने अमर सिंह और अजीत सिंह को यूपीए में शामिल करवा लिया. 22 मई 2004 को मनमोहन सिंह ने यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. उनकी सरकार में एनसीपी प्रमुख शरद पवार, राजद प्रमुख लालू यादव, लोजपा अध्यक्ष रामविलास पासवान, झामुमो प्रमुख शिबु सोरेन, टीआरएस प्रमुख के.चंद्रशेखर राव, डीएमके नेता टीआर बालू, दयानिधि मारन तथा पीएमके अम्बुमणि रामदास शामिल हुए.

    झटके लगते रहे

    2006 में पृथक तेलंगाना राज्य की मांग के मुद्दे पर टीआरएस ने यूपीए छोड़ दिया. 2007 में वाइको की पार्टी एमडीएमके ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. 2008 में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते से नाराज होकर 4 लेफ्ट पार्टियों ने समर्थन वापस लिया. ऐसे मौके पर विश्वासमत में समर्थन देकर मुलायमसिंह यादव ने मनमोहन सरकार को बचाया. 2009 में पीडीपी और पीएमके ने यूपीए छोड़ दिया. 2009 के आम चुनाव में यूपीए फिर सत्ता में आया. यद्यपि कांग्रेस को 206 सीटें मिली थीं लेकिन उसके बाद सिर्फ 5 पार्टियां यूपीए में थीं. ये पार्टियां थीं- टीएमसी, डीएमके, एनसीपी, नेकां और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग.

    ममता का दबाव कायम था

    ममता बनर्जी रेल मंत्री रहने पर भी कोलकाता में रहती थीं और वहीं अपने मंत्रालय की फाइलें मंगा लिया करती थीं. उन्होंने पीएम मनमोहन सिंह के साथ बांग्लादेश जाने से मना कर दिया था. रूठी ममता को मनाने के लिए प्रणब मुखर्जी की मदद ली जाती थी. बाद में उन्होंने अपने सहयोगी दिनेश त्रिवेदी को रेल मंत्री बनवा दिया लेकिन जब यात्री किराया बढ़ाया गया तो उन्होंने त्रिवेदी को इस्तीफा देने के लिए बाध्य कर उनकी जगह मुकुल राय को मनोनीत किया. मार्च 2012 में टीएमसी और डीएमके दोनों ने यूपीए छोड़ दिया. रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के खिलाफ टीएमसी के 6 मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया. झारखंड विकास मोर्चा तथा एआईएमआईएम ने भी यूपीए छोड़ दिया.

    कांग्रेस की बदहाली

    2014 के चुनाव में मोदी लहर के सामने कांग्रेस बुरी तरह हारी. उसे केवल 44 सीटें मिलीं. इसके बाद यूपीए सिर्फ नाम के लिए ही रह गया. विपक्षी पार्टियों के लिए ‘समान विचार वाले दल’ शब्द का प्रयोग होने लगा. अब बंगाल की जीत से उत्साहित ममता बनर्जी शरद पवार के सहयोग से बीजेपी के खिलाफ नए सिरे से गठबंधन बनाने की बात कर रही हैं, जिसका स्वाभाविक नेतृत्व कांग्रेस के पास नहीं होगा. क्षेत्रीय दलों के नए गठबंधन में कांग्रेस चाहे तो एक हिस्सा बन सकती है. गनीमत है कि कांग्रेसमुक्त गठबंधन की बात नहीं कही.