Daughter-in-law refused to touch her feet, quarreled with mother-in-law

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पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, पुरानी और नई पीढ़ी में टकराव होना स्वाभाविक है. हर सास खुद को सास और बहू को आम समझती है. आगरा में एक सास पुलिस के पास यह शिकयात लेकर पहुंची कि बहू उसके पैर नहीं पड़ती. इस वजह से सास को रिश्तेदारों के सामने बार-बार शर्मिंदा होना पड़ता है. परम्परानुसार बहू को प्रतिदिन सास के पैर पड़ने चाहिए.’’ हमने कहा, ‘‘बहू बी.टेक पास है. ऐसी पढ़ी-लिखी बहू के साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती. उसका मन पैर पड़ने का नहीं है तो नहीं पड़ती. मन में बड़ों के प्रति सम्मान रहना काफी है. वैसे भी किसी के पैर पड़ना गुलामी की न िशानी है. प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू इसे बिल्कुल पसंद नहीं करते थे. कोई चरणस्पर्श करने की कोशिश करता था तो डांट कर भगा देते थे.’’ पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, यह नेहरू का नहीं मोदी का जमाना है जो कभी संसद भवन के सामने तो कभी चोल वंश के सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक सेंगोल के सामने दंडवत प्रणाम करते हैं. इसे कहते हैं संस्कार. बहू को भी उत्तरी राज्यों की परंपरा के मुताबिक सिर पर साड़ी का पल्ला लेकर सास के चरणों का बार-बार स्पर्श करना बल्कि पैर भी दबाना चाहिए. पुरानी बहुएं ऐसा करती थी तो सास प्रसन्न होकर उन्हें अष्ट पुत्र सौभाग्यवती का आशीर्वाद देती थीं. गदगद होकर कहती थी- दूधी नहाओ, पूतों फलो. इस गौरवशाली-वैभवशाली भारत में सासभी कभी बहू थी. टीवी की तुलसी बहू को ‘बा’ का आशीर्वाद मिला तो पुत्री बन गई कि नहीं? हर सास ने अपनी सास के पैरपड़े. यह परंपरा सदियों से चली आ  रही है. पैर पड़ना सम्मान दर्शाने और विनम्रता की निशानी है. पैर पड़ने के लिए झुकने से कमर का व्यायाम हो जाता है.’’ हमने कहा, ‘‘पैर छूने के मुद्दे पर विवाद बढ़ने से बहू मायके चली गई. पुलिस ने समझाने-बुझाने या समुपदेशन के लिए सास-बहू दोनों को बुलाया लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. ऐसे हालत में सास को यथास्थिति स्वीकार करवानी चाहिए. आज की पढ़ी लिखी कामकाजी बहुओं को सिर पर पल्ला ओढ़ने, पायल-बिछिया पहनने, आलता.. और सिंदूर लगाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता. वे मनचाही ड्रेस पहन सकती हैं. हर दकियानूस सास को समझना होगा कि जमाना बदल गया है. बहू दिल से सम्मान करती है, इतना काफी है.’’