पड़ोसी ने हमसे कहा, ‘‘निशानेबाज, नेता के मुकाबले बड़ा से बड़ा अभिनेता भी कमजोर पड़ जाता है. जो अभिनेता राजनीति में जाता है, उसकी वहां बोलती बंद हो जाती है. वह समझ जाता है कि पॉलिटिक्स में एक से एक पहुंचे हुए लोग होते हैं. आपने देखा होगा कि जो फिल्मी हीरो-हीरोइन सांसद बन जाते हैं वे वहां जाकर मौन साधन लेते हैं बेशक जया बच्चन इसका अपवाद हो सकती हैं.’’
हमने कहा, ‘‘सबसे पहली बात तो यह कि अभिनेता को समझ में ही नहीं आता कि नेता का रोल कैसे किया जाए. न उसके पास स्क्रिप्ट होती है, न डायलॉग. कोई डायरेक्टर भी मौजूद नहीं रहता जो उससे बार-बार रिटेक करवाए और फिर फाइनल शॉट ओके करे. अभिनेता देखता है कि नेता जिस प्रदेश में जाते हैं वहां की वेशभूषा पहन लेते हैं. उत्तर भारत में धोती तो दक्षिण भारत में लुंगी या वेस्टि पहनते हैं तो कहीं आदिवासियों का परिधान भी धारण कर लेते हैं.
टोपी और पगड़ी बदलने में नेता लाजवाब हुआ करते हैं. जैसा देश वैसा भेष अपनाकर वे जनता को मुग्ध कर देते हैं. धर्मस्थल जाना हो तो कहीं माथे पर त्रिमुंड लगा लेते है तो कहीं तुलसी माला पहनकर खडताल बजाने लगते हैं. जनता को प्रभावित करने के लिए अनेकों रूप लेते है. वे उस प्रदेश की संस्कृति व महापुरुषों की तारीफ करते हैं. वहां की भाषा के दो-तीन वाक्य बोल कर ताली पिटवा लेते हैं.’’
पड़ोसी ने कहा, ‘‘निशानेबाज, फिल्मी हीरो ऐसा क्यों नहीं कर पाता? आपको याद होगा कि पुरानी फिल्मों में भारत भूषण कवि या शायर बना करते थे और प्रदीपकुमार शहजादे या मुगल बादशाह का रोल करते थे.’’ हमने कहा, ‘‘फिल्मों में लटके-झटके राजनीति में काम नहीं आते. फिल्मों के सेट और राजनीति के मंच में जमीन-आसमान का अंतर होता है.
नेता हर मुसीबत से निपट लेता है लेकिन अभिनेता को सीबीआई, ईडी या नारकोटिक्स ब्यूरो पूछताछ के लिए बुलाए तो वह बहाना नहीं बना सकता कि मेरे पास अभी एक साल तक आपके लिए कोई डेट नहीं है. फिल्म डायरेक्टर से बहानेबाजी चल सकती है, जांच एजेंसियों के डायरेक्टर से नहीं.’’